शनिवार, 25 मार्च 2017

हाय रे..मुझसे रोटियां नहीं फुलती हैं....



पिछले तीन दिनों से मेरी रोटियां नहीं फुल रही हैं। दो रोटी दोपहर के खाने में और तीन रोटी रात के खाने में बनानी पड़ती है। जब रोटियां नहीं फुलती हैं और चिपटी होकर पापड़ की तरह हो जाती हैं तो अचानक से गुस्सा आने लगता है। आत्मविश्वास इस कदर कमजोर पड़ जाता है कि अगली रोटी गोल नहीं बल्कि टेढी-मेढी बन जाती है। कभी-कभी अपनी बनायी रोटियों को देखकर अपने पर तरस आता है । जब पहली रोटी नहीं फुलती है तो यह बात मन में घर कर जाता है कि दूसरी भी नहीं फुलेगी। बनानी तो सिर्फ दो या तीन रोटियां होती हैं तो उम्मीद खत्म हो जाती है कि अगली रोटी फुलेगी। 

रोटियां न फुलने का मेरे मूड से शायद कुछ गहरा संबंध है। जिस दिन मेरी रोटियां नहीं फुलती हैं उस दिन खाना बनाते समय अजीबोगरीब चीजें घटित होती हैं। सब्जी में नमक ज्यादा हो जाता है या फिर अरहर की दाल मिड-डे मिल की तरह इतनी पतली बन जाती है कि उस पीले पानी में दाल खोजना पड़ जाता है। ये सब चीजें ज्यादातर उसी दिन होती हैं मलतब रोटियां खराब तो सारा खाना खराब। ठीक उसी तरह जैसे देने वाला किसी को छप्पर फाड़ के देता है तो बिगाड़ता भी वैसे ही है।
कल मेरी रूम मेट बाजार से आटा लेकर आयी (ज्यादातर वह घर का आटा इस्तेमाल करती है)। रात के दस बजे जब वह रोटियां बना रही थी तो उसकी पहली रोटी नहीं फुली। माथे से पसीना पोछते हुए वह मुझसे बोली-देखो यार ये रोटी तो फुली ही नहीं। दो और बनानी है पता नहीं फुलेगी कि नहीं। उस वक्त वह इतनी टेंशन में आ गई जैसे सारी खुशियों का रहस्य फुली हुई रोटी में ही छिपा हो। जब मैं बर्तन धो रही थी तो वह मुझे जोर से आवाज लगायी और बोली-जल्दी से यहां आओ। मैं हाथ धोकर दौड़कर आयी तो वो बोली-देखो ये तीसरी वाली रोटी फुल गई। अगर तुम जल्दी नहीं आती तो ये रोटी पिचक जाती और तुम देख भी नहीं पाती। उस फुली हुई रोटी को देखकर हम दोनों एक साथ खुश हो गए। जैसे हम दोनों की लॉटरी लग गई हो।

तीन दिनों से खाना बनाने का मन नहीं कर रहा था। अचानक से जाने क्या हुआ कि रोटियां ही नहीं फुलती थीं। जैसे उन्होंने तय कर रखा हो कि हफ्ते में तीन तीन नहीं फुलेंगे चाहे कुछ भी कर लो। जब रोटियां नहीं फुलती हैं तो हम उन्हें हाथ में लेकर उलट-पलट कर ऐसे देखते हैं जैसे इन रोटियों को किसी फिल्म में देखा हो। किसी साहब के घर से किसी गरीब को जो रोटी मिलती है उसके क्लोज-अप जैसा, बूढ़ी सास को उसकी बहू सबके खाने के बाद अंत में जो रोटी परोसती है उसके क्लोज-अप जैसा या कोई कुत्ता किसी के घर से रोटी उठाकर किसी और के घर के गेट पर छोड़ देता है उसके क्लोज-अप जैसा। अपनी बनायी रोटियां जब फुलती नहीं हैं तो उन्हें खाने में डर लगता है और मन करता है एक गिलास पानी के साथ इन्हें गटक जाएं।

मैं अपने गांव जब भी जाती हूं, मेरी माता जी कोई काम नहीं करवाती हैं मुझसे लेकिन रोटियां जरूर बनवाती हैं। मां कहती है कि जिसको अच्छी रोटियां बनाने आ गई वो खाने का हर आयटम बना सकता है। घर में छह लोगों के लिए रोटियां बनाने के लिए जब मैं आटा गूथती हूं तो मेरी दादी मम्मी से कहती हैं कि देखो आटे को कैसे सहला रही है। हाथ में इसके दम तो है नहीं जब आटे को ठीक से गूथ नहीं पाएगी तो रोटियां फुलेंगी कैसे। तब मैं खूब मेहनत से आटे को गूथती हूं और जब भी कोई रोटी नहीं फुलती तो दादी पास में लोटा भर पानी लाकर रख देती हैं। वे कहती हैं ये सब टोटके हैं, खाना बनाते समय अगर ठीक से न बने तो ऐसा करना चाहिए औऱ फिर जब अगली रोटी फुल जाती है तो मुझे इस टोटके पर विश्वास हो जाता है।

सच में जब भी मेरी रोटियां नहीं फुलती है तो मैं रुआंसी हो जाती हूं। फिर बाकी का खाना बनाने का मन ही नहीं करता। आत्मविश्वास भी कमजोर पड़ जाता है। मैं मानती हूं कि अच्छी रोटियां बनाना-फुलाना एक कला है। जो इस कला में पारंगत है वो सच में अच्छा रसोईयां है।

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

विविध भारती नहीं होती तो क्या होता......



विविध भारती पर प्रत्येक शुक्रवार को शाम चार बजे एक कार्यक्रम विविधा आता है। इस कार्यक्रम को मनीषा जैन और कमल शर्मा जी मिलकर प्रस्तुत करते हैं। मनीषा जैन जी विविध भारती की एनाउंसर नहीं बल्कि प्रोड्यूसर हैं लेकिन जब वह विविधा प्रस्तुत करती हैं तो सुनते ही बनता है। मनीषा जी उर्दू जुबान बोलती हैं जिन्हें सुनना सुखद लगता है। उनकी आवाज उनकी जुबान महुए की भीनी खुशबू की तरह लगती है।

दरअसल मैं यह बताने जा रही हूं कि विविध भारती का विविधा प्रोग्राम मुझे बेहद पसंद है। जब आप खुद सुनेंगे तो आपको भी प्यार हो जाएगा इस कार्यक्रम से। आज शुक्रवार है और आज के कार्यक्रम में फारूख शेख साहब की एक रिकॉर्डिंग सुनायी जा रही है। फारूख शेख साहब...नाम सुनते ही मेरा चेहरा खिल उठा। एक उम्दा शख्सियत...जिन्हें अपना जिक्र तक सुनना पसंद नहीं और मैं यहां उनकी तारीफ में शब्द भूल जा रही।

रेडियो सुनना मुझे बचपन से ही पसंद है। मेण्डलिफ की आवर्त सारिणी रेडियो सुनने सुनते ही याद किया था मैंने। धीमी आवाज में अगर मेरे कमरे में रेडियो न बजता तो मैं गणित और भौतिक विज्ञान के सवाल मन से हल नहीं कर पाती थी। आज भी वही हाल है। अब रेडियो सुनने का वैसे तो ज्यादा समय नहीं मिलता लेकिन विविधा सुनने के लिए मैं सबकुछ छोड़ देती हूं। चाहे कहीं भी रहूं कम से कम यह कार्यक्रम सुनना मैं कभी नहीं भूलती। जाने क्या है इस कार्यक्रम में...जिंदगी जीना सीखा जाता है या यूं कहें मुझे ऊर्जा से भर देता है यह कार्यक्रम।

हां..तो मैं यह बता रही थी कि..आज के विविधा में फारूख शेख साहब आए थे। मेरे लिए फारूख शेख को सुनने का मतलब अपने आप को सुनना होता है। मुझे लगता है ऐसा बहुत सारे लोगों के साथ होता होगा। फारूख जी जमीन से जुड़े हुए इंसान है..वे कार्यक्रम में आएं और नाटक, थिएटर, जिंदगी की बातें न हो यह संभव नहीं। उनके मुंह से दीप्ति नवल का जिक्र सुनने को और बेकरारी बढ़ती जाती है।

वैसे तो प्रत्येक शुक्रवार को यह कार्यक्रम सुनते हुए मैं गणित के सवाल हल किया करती हूं और वही काम आज भी करने वाली थी। लेकिन जैसे ही पता चला कि कार्यक्रम की शुरूआत में फारूख शेख से एक बातचीत सुनवायी जाएगी..मैं सन्न रह गई..जब तक अपने कानों पर यकीन करती तब तक फारूक शेख जी एनाउंसर को नमस्कार बोलकर कार्यक्रम की शुरूआत भी कर चुके थे। 

शाम के चार बजे धूप जाने को होती है और मैं अपने कमरे की खिड़की इसी समय खोलती हूं। खिड़की से ठंडी हवा आ रही थी और मैं फारुख शेख को सुन रही थी। यह बताना मुश्किल है उस वक्त मैं कहां थी...यह जताना मुश्किल है जिस आनंद की अनुभूति मैं कर रही थी। आधे घंटे का उनका वह इंटरव्यू सुनकर जो लगा वो शायद कभी-कभी ही लगता है। फारूख शेख को टीवी पर सुनना मुझे कभी रोमांचित नहीं किया जितना कि रेडियो पर। विविध भारती नहीं होती तो बहुत कुछ नहीं होता..जैसे किताबें नहीं होतीं तो क्या होता.

बुधवार, 22 मार्च 2017

दुनियावालों...मैंने चोरी की है....



कल एक दूकान पर फोटो स्टेट कराने गई थी। जीरॉक्स के बाद दूकानवाले ने मुझसे सात रूपए मांगे तो मैंने उसे दस का नोट पकड़ा दिया। उसने नोट अपने हेल्पर को दिया और बाकी पैसे वापस लौटाने को बोला। हेल्पर ने मुझे सात रूपए वापस किए जब तीन रूपए ही वापस करने थे। मेरे हाथ में सामान ज्यादा था इसलिए मैंने जैसे-तैसे पैसे पकड़ तो लिया  लेकिन यह नहीं देखा कि कितना वापस किया उसने। अगली दूकान पर जब मैंने सारे सामान बैग में भरे और पैसे जब पर्स में रखने लगी तो मैंने देखा कि एक पांच और दो का सिक्का वापस किया था उसने। पहले तो मेरा मन किया कि उस दूकान पर जाकर उसके सात रुपए वापस कर दूं और बचे तीन रूपए ले लूं लेकिन जाने क्या दिमाग में आ रहा था कि मैं वहां जा न सकी।

उसके सात रूपए तो वापस करने मैं नहीं गई लेकिन पूरे रास्ते भर मुझे यह महसूस हो रहा था जैसे किसी का कोई बड़ा सामान चुराकर भाग रही हूं मैं। जैसे ही मैं चार कदम चलती मुझे एहसास होता कि जो मैं करके जा रही हूं ये भी तो चोरी ही है। ईमानदारी तो इसमें थी कि जब मैंने देखा कि उसने तीन की बजाय सात रुपए वापस किए हैं मुझे तो उसी वक्त उसके रुपए लौटा देने चाहिए थे मुझे लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पायी।

रास्ते भर इस बात का पछतावा रहा कि मैं दूकानदार के पैसे लेकर घर जा रही हूं। घर पहुंचने पर इन सात रुपयों की वजह से मन जाने कैसा हो रहा था। ऐसे तो मैं खुद कहते फिरती थी कि ईमानदारी का तो जमाना ही नहीं रहा और आज मैंने कौन सी ईमानदारी दिखायी। मैं पछतावे से बाहर नहीं निकल पा रही थी। मैंने निश्चय किया है कि अब चाहे जितने दिन बाद भी उस तरफ जाना हुआ मैं दूकानदार के सात रुपए वापस करके अपने तीन रुपए ले आऊंगी अन्यथा अपनी खुद की ये चोरी मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगी।

...ताकि भरोसा बना रहे!



मैं अपनी एक सहेली को ऑटो पकड़ाने के लिए सड़क किनारे खड़ी थी तभी एक छोटे कद की महिला हाथ में साइकिल पकड़े सड़क पार करते हुए दिखी। मैंने अपनी सहेली से कहा-देखो वह महिला साइकिल चला रही है..कितनी बड़ी बात है। मेरी सहेली बोली-इसमें बड़ी बात क्या है। मैंने कहा-साड़ी पहनकर साइकिल चलाना बड़ी बात है और औरत का अपने काम से कहीं साइकिल चलाकर जाना भी बड़ी बात है। इस औरत को देखकर मुझमें ऊर्जा का संचार हो रहा है।

खैर, मेरी सहेली ने फिर कोई जवाब नहीं दिया और ऑटो पकड़कर वह चली गयी। जब मैं वापस लौटने लगी तो वह महिला साइकिल हाथ में पकड़े पैदल चल रही थी। मैंने उससे पूछा कि क्या उसकी साइकिल खराब हो गई है..वह पैदल क्यों चल रही है। मेरी बात का जवाब दिए बिना ही वह बोली- गरीबों पर किसी को तरस नहीं आता और मैंने तो तरस दिखाने वाला कोई काम भी नहीं किया था। मैंने मेहनत की थी..दो महीने उनके घर में खाना बनाया था..मेरा सिर्फ खाना बनाने और बर्तन मांजने का काम था उनके घर में लेकिन उनके घर में कोई और महिला नहीं है तो मैंने होली पर उनके घर का सारा अतिरिक्त काम करवाया...उनके चिप्स-पापड़ बनवाए मैंने पूरे घर की सफाई की। फिर अचानक ना जाने क्या हुआ और एक दिन उन्होंने फोन करके मुझे आने के लिए मना कर दिया और दूसरी खाना बनाने वाली को रख लिया। आज जब मैं दो महीने के काम का पैसा लेने पहुंची तो पंद्रह दिन का पैसा पकड़ा दिया उन्होंने और बोली तुमने बस पंद्रह दिन ही काम किया है।

क्या करूं दीदी..मैं तो मर जाऊंगी अगर मेरे तीन हजार रुपए नहीं दिए उन्होंने तो। मेरा मरद गांव में रहता है..मैं यहां किराए का कमरा लेके अकेले रहती हूं..पैसा नहीं मिला तो खरचा कैसे चलेगा। मालकिन बोलती है कि दुबारा यहां दिखी तो पुलिस में शिकायत कर दूंगी। बताओ दीदी मैंने तो बस अपना पैसा मांगा था, अब मैं क्या करूं..किसको लेकर जाऊं उनके यहां कि मेरा पैसा मिल जाए..मैं यहां किसी को जानती ही नहीं। वह लगातार अपनी बात बोले जा रही थी...मेरे पास कोई शब्द नहीं था कहने को। बस इतना ही कह पायी मैं कि –बहुत गलत किया आपकी मालकिन ने।

अपनी जिस सहेली को थोड़ी देर पहले ऑटो पर बैठाया था मैंने मैं उससे यह शिकायत कर रही थी कि दो महीने हो जाते हैं और तुम मिलती नहीं हो। वह बोली क्या करें यार, मम्मी से ऑटो का किराया मांगना पड़ता है उनके पास पैसे नहीं रहते तो नहीं दे पाती हैं इसलिए मैं आ नहीं पाती। जब मैंने उससे पूछा कि उसकी मम्मी क्या करती हैं और क्या घर की हालत ठीक नहीं है तो वह बोली कि उसके पापा की डेथ हो चुकी है और घर चलाने के लिए उसकी मम्मी एक घर में खाना बनाती हैं। लेकिन वह उन लोगों की तारीफ भी कर रही थी जिनके घर में उसकी मम्मी खाना बनाती हैं। वह बता रही थी कि वो डॉक्टर अंकल औऱ आंटी बहुत अच्छे हैं। समय से मम्मी को पैसे भी दे देते हैं और कभी मम्मी को उधार की जरूरत पड़ती है तो बिना कुछ पूछे ही पैसे दे देती हैं और कपड़े तथा खाने-पीने की चीजें भी देती रहती हैं। हम लोग गरीब जरूर हैं लेकिन वे दोनों लोग इतने अच्छे इंसान हैं कि उन्हें अपना सहारा भी समझते हैं। एक विश्वास भी है, दुख-तकलीफ भी समझते हैं वे लोग और उम्मीद से कहीं बढ़कर कर देते हैं हम लोगों के लिए।

उसकी बात याद करके मैंने मन ही मन सोचा कि काश इस औरत की मालकिन कम से कम इतनी इंसानियत रखतीं कि उसे उसके मेहनत का हिसाब दे देतीं तो उस महिला का इंसानियत से भरोसा नहीं उठता।

मंगलवार, 21 मार्च 2017

ऐसी हैं मेरी दादी...



कुछ साल पहले मेरी एक भैंस को जाने कौन सा बीमारी हो गई थी। दिन भर वह बेचारी मुंह से गोबर की उल्टी करती और बेचैन रहती। उसके दोनों आंखों से खूब आंसू भी निकलते। जितने दिन भैंस ने गोबर की उल्टी की उसकी चिंता में मेरी दादी की हालत खराब होने लगी। एक दिन रात में दूरदर्शन पर घर के सभी लोग फिल्म देख रहे थे तभी दादी के जोर-जोर से रोने की आवाज आयी। दादी घर के बरामदे में जमीन पर बैठी दहाड़े मारकर रो रही थीं। उनके ठीक बगल में भैंस गिरकर मर गई थी। उसकी जीभ बाहर निकल गई थी। मेरी दादी अपने सिर के बाल नोंच नोंचकर पागलों की तरह रो रही थीं और लगातार यह कह रही थीं कि तुम लोगों के दादा जब इसे खरीद कर लाए थे तब 15 दिन का बच्चा था ये। इतना गोरा-चिट्ठा(ज्यादातर भैंस काली होती हैं लेकिन मेरी वो भैंस भूरी या गोरी थी) थी। ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाती थी..इसकी मां मर गयी थी तो मैंने इसे गिलास से दूध पिलाकर पाला। दादी के आंसू नहीं रूक रहे थे उस भैंस से उनको बहुत प्यार था।

दादी को घर के सभी भैंसों से उतनी ही ममता है अब। कुछ दिन पहले मैं घर गयी थी तो देखा कि भैंस के गले में मोटी रस्सी डालते-डालते उसकी गर्दन पर घाव के निशान आ गए थे। भैंस घर के बाहर बंधी थी और कौवे आकर उसके घाव को इतना कुरेद दिए कि वहां से बहुत तेजी से खून निकलने लगा। घर के बाकी लोगों ने भी यह देखा लेकिन सभी भैंस को दवा लगाने के नाम पर टाल-मटोल कर गए। लेकिन दादी ऐसे तिलमिला उठीं जैसे वह उन्हीं का घाव हो। उन्होंने भैंस के घाव पर मरहम लगाकर चौड़ी पट्टी बांध दी और भाभी की दो साल की बेटी को यह देखने के लिए लगा दीं कि जब भैंस के ऊपर कौवा बैठे तो वह तुरंत डंडा दिखाकर उसे उड़ाए या उन्हें फौरन बुलाए। मेरे पड़ोस के लोग जब भैंस दूध देना बंद कर देती है तो उसे बेचकर नई भैंस ले आते हैं लेकिन मेरी दादी मेरे घर की भैंस जब दूध देना बंद कर देती है तो उसे बेचने नहीं देतीं और नए बच्चे के इंतजार में उसकी सेवा करती हैं। ऐसी हैं मेरी दादी..पशुओं से बहुत लगाव है उन्हें।