रविवार, 21 अगस्त 2016

आलस वाला भूत!



हम सभी के अंदर आलस नाम का एक भूत बैठा होता है। सभी अपनी-अपनी शक्ति से इसे परास्त करने की कोशिश करते हैं लेकिन मैं तो ज्यादातर खुद ही परास्त हो जाती हूं और इसके बाद निराशा हाथ लगती है और फिर आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता है।

कुछ दिनों से सुबह टहलने की आदत छूट गई है। सुबह का  अलार्म लगाकर रात में जल्दी सो जाती हूं। सुबह अलार्म बजने तक नींद भी पूरी हो जाती है। मैं उठकर बैठ जाती हूं फिर जाने कौन सा भूत चांपता है कि दोबारा सो जाती हूं। थोड़ी ही देर में तेज धूप निकल आती है तब उठने के बाद खुद को कोसने के अलावा कुछ नहीं बचता। मैं मुंह बना कर ऐसे बैठ जाती हूं कि इसी मूड में बनी रहूं तो पूरा दिन खराब हो जाए।

दोपहर के तीन बजे मैं कमरे में लेटे हुए यह सोच रही हूं कि मुझे बाजार जाकर अपनी जरूरी किताबें खरीदनी है। तभी आलस वाला भूत चांपता है और मैं सोचती हूं कि पांच मिनट बाद ही उठकर तैयार होऊं। पांच की बजाय मैं पंद्रह मिनट बाद उठकर खिड़की से झांकती हूं तो लगता है अभी तो शाम होने में तीन घंटे बाकी है। क्यों न शाम को ही जाकर किताबें खरीदूं। वह भूत मुझे काम के प्रति एक्टिव नहीं होने देता और मैं शाम खोकर रात में प्रवेश कर जाती हूं।

मुझे जोरों की प्यार लगी है और छत्तीस सीढियों को नापते हुए पहले मंजिले पर उतरकर फ्रिज से पानी लाना है। मैं थोड़ी देर तक प्यास को इग्नोर करती हूं फिर कमरे में रखी दो खाली बोतलों में एक बूंद पानी इस कदर टटोलती हूं जैसे मरते हुए के मुंह में एक बूंद गंगाजल डाल देता हो कोई।
सबसे बड़ी बात तो बताना भूल गई। सुबह रोज इसी ऊहापोह में रहती हूं कि पहले नहाऊं या पहले खाऊं। फिर मेरे अंदर बैठा भूत पहले खाने की जिद करता है और मैं खाना खा लेती हूं। इसके बाद कुर्सी पर बैठे-बैठे मैं नींद में इस कदर झूलने लगती हूं जैसे खाना नहीं अफीम की गोली खा ली हो मैंने।

मरने के बाद जो लोग स्वर्ग में जाते होंगे वे वहां का अपना अनुभव जीवित लोगों को तो नहीं बता सकते। लेकिन मैं जीवित ही नींद में जिस स्वर्ग का अनुभव करती हूं वो जरूर बता सकती हूं। उस वक्त लगता ही नहीं है कि नींद से बढ़कर भी जीवन में और कोई सुख है।
हां..ये बात अलग है कि जब सोकर उठती हूं तो दो-चार लोग पूछ बैठते हैं..अरे चेहरा क्यों इतना सूजा है आपका..तबीयत तो ठीक है ना?

सोमवार, 8 अगस्त 2016

चिंता खा नहीं रही काट रही है...

कल मेरी रूम मेट बातोंबातों में बोली-काश बचपन के दिन जल्दी न बीते होते, अच्छा होता कि हम बड़े ही न हुए होते। लेकिन अगर बड़े न होते तो मां-बाप को उसकी भी एक अलग ही चिंता हो जाती।

मां-बाप को बच्चों की चिंता तो हमेशा लगी रहती है। पड़ोसी के बच्चे को नौकरी मिल जाए तो मां को अपने बच्चे की चिंता होने लगती है। पापा के दोस्त का बेटा विदेश चला जाए तो पापा को अपने बच्चे की चिंता होने लगती है। अपना दोस्त अपनी पहली सैलरी से अपने घरवालों के लिए नए कपड़े खरीद कर लाता है तब अपनी मां के सपने जैसे चकनाचूर होकर उनकी आंखों से बहने लगते हैं। आप सिर्फ मैगी या चाय बनाना जानती हैं जबकि पड़ोसी की बेटी छप्पन भोग तैयार करके रख देती है तब मां के दिल में आपके लिए टीश उठती है। जाड़े के दिनों में आप मां से स्वेटर बुनने की फरमाइश करती हैं और आपके बगल की रीना, श्वेता अपने लिए हॉफ औऱ फुल बाजू के धारीदार स्वेटर के अलावा अपने भाई के बेटे के लिए दो जोड़ी रंग-बिरंगे मोजे बुन देती है तो मां को आप गुड़-गोबर से ज्यादा कुछ नहीं लगतीं। उनके चिंता करने की एक वजह होती है भला।

आपको अट्ठाइस की उम्र तक पढ़ा रहे हैं वो इसके बाद भी आप अपने बाल सफेद कर बिना नौकरी के उनके सामने हाजिर हों तो उसकी एक अलग चिंता होती है...शायद चिंता नहीं आक्रोश जैसा कुछ होता है। इसके बाद वे आपके पढ़ाई का खर्च उठाने की हालत में नहीं होते हैं। अगर आप लड़का हैं तो खुद कैसे भी कमाइए या शादी कर लीजिए..बहू को मां-बाप के पास छोड़कर दहेज के पैसे लेकर शहर जाइए और पढ़ाई कीजिए। अगर आप लड़की हैं तो..उनके कहने से पहले ही शादी के लिए हां बोल दीजिए..भलाई इसी में है। आपको आगे पढ़ाने की उनकी कूबत नहीं है उनमें...आगे पढ़ाएंगे तो जमा पैसे खिसकते ही जाएंगे...फिर आपकी शादी के लिए दहेज के पैसे क्या वे भीख मांगकर जुटाएंगे।

आपने शादी के लिए हां बोल दिया तो इसकी अलग ही चिंता। पिता के पैर में छाले पड़ जाते हैं आपके लिए योग्य वर ढूंढने में। आजकल वधू ढूंढने में भी पिता को मशक्कत करनी पड़ती है। फिर उनकी पसंद पर आपने छूरियां चला दी तो उसकी एक अलग चिंता। यदि आप लड़का हैं तो आप पर दबाव बनाया जाएगा कि कुछ करते-धरते तो हो नहीं लड़की ऐश्वर्या राय कहां से मिलेगी। अगर आप लड़की हैं तो आपको काली,  सांवली, छोटी आदि बताकर कहा जाएगा कि सपनों वाला राजकुमार ऐसी लड़कियों को नहीं मिलता..जो दूल्हा ढूंढा है चुपचाप उसी से कर लो शादी। एक मिनट के लिए आप सदमे में आ जाएंगे कि ये आपही के मां-बाप है न। 

आप सदमे से उबरे भी नहीं रहेंगे कि मां विलाप करते हुए कहेंगी..कर लो बेटी शादी...पापा कहां से ढूंढेंगे तुम्हारे मन-मुताबिक लड़का। अपनी हैसियत भी तो नहीं है। कहां से दे पाएंगे इतना दहेज। फिर सरकारी नौकरी के नाम पर आपको एक सरकारी सफाईकर्मी या चपरासी लड़के के साथ जीवन भर के लिए बांधने का फैसला कर लिया जाता है।

अंततः सीन थोड़ा जुल्मी हो जाता है। आपके सामने आपकी अपनी पिछली जिंदगी का फ्लैशबैक चलने लगता है। जब आप किसी शहर के मैक-डी में बैठकर बर्गर खा रहे थे साथ में फ्री वाई-फाई पाकर नेट सर्फिंग कर रहे थे। लड़की किसी बुद्धजीवी लड़के का सपना देख रही थी तो लड़का मिल्की व्हाइट और नौकरी करने वाली लड़की का।

वैसे चार्ली चैपलिन कब के कह गए हैं कि जिंदगी क्लोज-अप में ट्रेजडी है..इसलिए आप इसे लांग शॉट में देखिए। कल को आप कमाने लगेंगे तब भी मां-बाप की चिंता उतनी ही रहेगी कि आपकी तनख्वाह फलाने के लड़के से कम है...फलाने का लड़का अपनी मां के लिए हर हफ्ते साड़ी खरीदकर देता है जबकि आप सिर्फ होली-दीवाली। आप अभी से गंजे हो रहे हैं..फलाने का लड़का तो तीस की उम्र में भी बीस जैसा दिख रहा है। नहीं खत्म होने वाली हैं ये परेशानियां।  

बुधवार, 27 जुलाई 2016

@nam उवाच



आलू का परांठा..मां..याद



चार साल का वह छोटा लड़का अपने घर की बालकनी में खड़ा होकर आलू का परांठा खा रहा था। लड़की उसे अपने हॉस्टल के कमरे की खिड़की से देख रही थी। लड़का पराठे को हाथ से तोड़-तोड़कर खा रहा था। उसने अगली बार परांठे को तोड़ा तो उसमें भरा आलू थोड़ा सा जमीन पर गिर गया। लड़का परांठा खाते-खाते ही कोई कविता याद कर रहा था.. वह हिल-डुल रहा था..नाच रहा था..कविता रट रहा था और परांठा खा रहा था। थोड़ी देर बाद परांठा खत्म हो गया और लड़का...मां एक और देना..बहुत अच्छा लग रहा है.. कहते हुए किचन में चला गया।

खिड़की के पास खड़ी लड़की का मन रूआंसा हो गया। वह परांठे की खुशबू को महसूस कर रही थी। परांठे से आलू का गिरना उसे अपने घर और मां की याद दिला रहा था। वह अपने घर पर ऐसे ही खड़े होकर आलू के परांठे खाया करती थी। मां कितनी बार कहती कि प्लेट में परांठे रखकर खाए..बैठकर आराम से खाए..लेकिन वह मां की बातें न सुनती और गर्मागरम परांठे अपने आंगन में टहल-टहल कर खाती..कभी चारपाई पर भी बैठ जाती..लेकिन एकदम से बैठकर न खाती।
जब परांठे से थोड़े आलू जमीन पर गिर जाते थे तो उसे कौवा और चिड़ियां उठा ले जाते। यह देखकर उसे बड़ा मजा आता। वह अगर ज्यादा से ज्यादा परांठे खाती तो मां का दिल गद्गद हो उठता। फिर भी मां कहती..एक-दो और खा लो। जैसे उसके ज्यादा परांठे खाने से ही मां का पेट भर जाता था।

वह इन्हीं खयालों में खोई हुई थी कि लड़का दूसरा परांठा लेकर फिर से बालकनी में आ गया। खिड़की में खड़ी लड़की उस छोटे लड़के से जोर से बोली-अपना परांठा मुझे भी दोगे।
-लड़का बोला-नहीं।
वह बोली-मेरी मां भी बहुत टेस्टी आलू के परांठे बनाती है।
-लड़का बोला-तो अपने घर ही जाकर खाना, मैं अपना नहीं दूंगा।
लड़की बहुत मिस कर रही थी मां को, परांठे को, घर के आंगन को।

सोमवार, 18 जुलाई 2016

जब नींद आयी तो ऐसे आयी...



मैं पिछले दो घंटे से लाइब्रेरी में बैठी हूं। लेकिन जब से बैठी हूं तभी से मुझे जोरों की नींद आ रही है। मैं अपनी चारों तरफ यह देख रही हूं कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा कि मैं आते ही सोने लगी। अब तक मैंने एक अक्षर भी नहीं पढ़ा है।

नींद इतनी तेज कि मेरा सिर अपने आप डेस्क पर पटका जा रहा है। इसे सुख की नींद कहते हैं शायद, मतलब सब कुछ भूल कर सोना। लेकिन यहां तो सोने की कोई जगह ही नहीं है। यह नींद बेचैनी वाली नींद साबित हो रही है। 

लाइब्रेरी आने से पहले मैं हॉस्टल में खाना खाकर डेढ़ घंटे तक सोई रही। फिर उठी तो तैयार होकर यहां आ गई। लेकिन नींद तो साथ में ही चली आयी। लगता है यह नींद सुलाकर या फिर रूलाकर मानेगी। क्या करूं...क्या करूं...दिमाग इसी उधेड़बुन में है।

लाइब्रेरी में सोना बिल्कुल अलाऊ नहीं है। किसी ने डेस्क पर अपना सिर झुकाया नहीं कि कहीं से एक बुलंद आवाज सुनाई देती है..फौरन निकलिए बाहर...यह सोने की जगह नहीं है। क्या यह आवाज भगवान की थी...नींद में झूल रहे व्यक्ति को उस वक्त ऐसा ही लगता है..क्यों कि बुलंद आवाज में बोलने वाला कहीं दिखाई नहीं देता है।

मेरी नींद चरम पर है। मुझे सबकुछ धुंधला सा दिखाई दे रहा है। मैं हॉस्टल वापस चली जाऊं..क्या करूं..कुछ समझ में नहीं आ रहा। तीखी धूप है...ऊपर से लाइब्रेरी से मेन रोड की दूरी एक किमी है..वहां तक पैदल जाने के बाद भी कोई रिक्शा मिलने की संभावना है। इस धूप में निकलने की हिम्मत नहीं हो रही लेकिन नींद का क्या करूं।

मैं उठती हूं और बाहर नल के पास जाकर आंखों पर पानी के छींटे मारती हूं। इसके बाद भी आंखें चिपकी जा रही हैं। अचानक इतनी नींद क्यों और कैसे आने लगी..कुछ समझ में नहीं आ रहा। घर के बाहर भी ऐसी नींद आती है बिना किसी वजह के मुझे अब समझ में आ रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे पूरी रात जगकर मैं किसी की शादी में मंत्र पढ़कर आयी हूं। इतनी नींद कि लाइब्रेरी में बैठे हर चेहरे सिर्फ धुधले रंगों में दिख रहे हैं।

 अब मुझे शक हो रहा है कि कहीं मेरी रूम मेट ने चाय में नींद की गोली डालकर तो नहीं पिला दी मुझे। मैं उड़द की दाल खाकर भी नहीं आयी थी जो एसिडिटी की वजह से नींद आ रही हो।
मैं उठती हूं और थोड़ी देर लाइब्रेरी से बाहर निकलने की सोचती हूं। मैं बाहर निकलकर लाइब्रेरी के गेट तक पहुंचती हूं कि पेड़ से दो जामुन मेरे सिर पर गिरता है। बाहर काफी ग्रीनरी है...यह सब देखना आंखों को राहत देने जैसा है। मैं थोड़ी दूर जाकर एक पत्थर पर बैठ जाती हूं।  थोड़ी देर बैठने के बाद मैं लाइब्रेरी वापस आ जाती हूं। लेकिन फिर भी राहत नहीं..कुछ देर बाद मुझे फिर वैसे ही नींद आने लगती है। अब नींद भगाने के लिए मेरे पास कोई उपाय नहीं है। 

कुछ लोगों को देखा है कि जब नींद आने लगे तो वे लिखने बैठ जाते हैं...पढ़ते वक्त नींद ज्यादा आती है जब कि लिखते वक्त उससे कम। अब मैं लिखने बैठ जाती हूं...तो आंखें धीर-धीरे खुलना शुरू हो जाती हैं। नींद में लिखी गई पोस्ट आपके सामने है।


शनिवार, 16 जुलाई 2016

चांद..आशिक और छत



छत पर आओ न, मुझे तुम्हें देखना है।
-अच्छा जी! अगर मैं तुम्हारे हॉस्टल के सामने नहीं रहता तो कैसे देखती मुझे?
वो मुझे नहीं पता, बस तुम अपनी छत पर आ जाओ।
-लो बाबा, आ गया..अब खुश !
हां..बहुत खुश..आसमान में उस चांद को देखो..कितना प्यारा लग रहा है।
-हां..प्यारा तो लग रहा है..
नहीं..ऐसे मत देखो
-फिर कैसे
पहले चांद को देखो, फिर उसके किनारे रोशनी से बनी धुंध को देखो।
-हां..देख तो रहा हूं।
नहीं..ऐसे नहीं
-फिर कैसे?
पहले चांद को देखो..फिर उसके किनारे की धुंध को देखो..और फिर उसके बगल में जो चमकीला तारा बैठा है उसे देखो।
-अरे वाह...चांद तो वाकई प्यारा दिख रहा है।
चांद प्यारा ही नहीं बहुत प्यारा लग रहा है, लेकिन तुम इसे ऐसे मत देखो।
-फिर कैसे?
ये जो चर्च दिख रहा है न पहले इसकी मिनार देखो, फिर उसके ऊपर चांद और बगल में बैठे तारे को देखो। मिनार, चांद और तारे को एक ही फ्रेम में रखकर देखो। इसके अलावा कुछ न देखो।
देखो न..कितनी प्यारी सीनरी है ये। जैसे बचपन में हम ड्राइंग बनाया करते थे। कोई घर होता था फिर उसके ऊपर काली रात बनाते थे फिर ठीक ऐसे ही चांद और बगल में एक चमकीला तारा।
-लेकिन मुझे तो चांद के बगल में बैठा यह तारा ऐसे दिख रहा है मानों तुम्हारे गाल का तिल हो।
नहीं..तुम इसे तिल मत बनाओ..इसे ऐसे देखो जैसे बचपन में बनायी गई कोई पेंटिंग हो।
-सच.. तुम पगली हो रे।