शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

चलती ट्रेन और गोभी का अचार...

मेरी ट्रेन तुम्हारे शहर से होकर गुजरेगी। कुछ चहिए तो बता देना घर से लेते आऊंगा...हां.. तुम्हें जहमत इतना भर उठाना पड़ेगा कि स्टेशन पर आना होगा...वो भी बिल्कुल समय पर या समय से पहले...ट्रेन उस स्टेशन पर सिर्फ दो मिनट ही रूकती है।

रात को उससे बात करते हुए यह तय हुआ कि वो घर से गोभी का अचार लाएगा...और मैं समय से पहले स्टेशन पर पहुंच जाऊंगी।

लेकिन अगली सुबह ठंड ने ऐसे दबोचे रखा कि मेरी नींद ही नहीं खुली....कई बार उसका फोन आया...और मैं यह सोचकर फोन नहीं उठा सकी कि चलो..अचार ही तो है..अगर समय पर स्टेशन नहीं पहुंच पाई तो वह अचार लेकर चला जाएगा..थोड़ा नाराज भी होगा...लेकिन इतनी भारी चीज तो है नहीं...अगर मैं नहीं ले सकी तो उसके काम आ जाएगा

खैर...उसकी ट्रेन लेट थी...और मेरे उठने का समय भी हो चुका था.... लेकिन जब मैंने उसे फोन किया तो वह काशी (सिटी स्टेशन) तक पहुंच चुका था। अगला स्टेशन कैंट था...ट्रेन वहां दस मिनट रुकने वाली थी...इसके बाद मडुआडीह स्टेशन..जहां मुझे जाकर अचार लेना था...

मेरे घर से निकलने तक वह कैंट स्टेशन पहुंच चुका था.... और मैं मडुआडीह क्रासिंग पर भयंकर जाम में फंस गई। मैं उसे फोन पर सिर्फ एक ही बात कहती रही..अगर मैं समय पर नहीं पहुंच पायी..तो तुम ट्रेन से उतर जाना...अगली ट्रेन पकड़ कर चले जाना... लेकिन अचार देकर जाना....

मैं पैंतालिस मिनट तक जाम में फंसी रही...और उसकी ट्रेन कहीं आउटर पर खड़ी रही। फिर भी मन में यह आशंका जरूर थी कि मैं समय पर स्टेशन नहीं पहुंच पाउंगी....अब तक मैं अचार के भयंकर मोह में जकड़ चुकी थी।
जाम में अन्य गाड़ियों से टकराते हुए रिक्शे वाले ने जाने कैसे-कैसे रिक्शा निकाला...औऱ उसैन वोल्ट वाली रफ्तार से रिक्शा दौड़ाकर मुझे तीन मिनट के अंदर स्टेशन पर पहुंचा दिया।

लेकिन हाय राम...ट्रेन का वहां कुछ अता-पता नहीं था...कोई अनाउंसमेंट नहीं...ना जाने निकल गई या आने वाली है....कुछ पता नहीं चल रहा था।
मैंने फोन किया तो उसने बताया कि उसकी ट्रेन निकल चुकी है...थोड़ी ही देर में पहुंच जाएगी। मैं प्लेटफार्म नंबर दो पर पहुंच गई...कुछ देर बाद उसकी ट्रेन रुकी...और वह हीरो की तरह एक थैला हाथ में लिए उतरा....उसने मुझे थैला पकड़ाया ही था कि ट्रेन के जाने का सिग्नल हो गया और वह चला गया।

गोभी का अचार खाने के लिए दिन में दो बार खाना खाने लगी...और चार दिन के भीतर सिर्फ खाली डिब्बा बचा..अचार खतम हो चुका था।


कभी-कभी दोस्त शहर से गुजरते हुए अचार का थैला पकड़ा जाते हैं.... चार दिन तक चाटने के बाद अचार भले ही खत्म हो जाए...लेकिन सुगंध दिमाग में रोज बनी रहती है....खाली डिब्बा जो पड़ा है घर में..

बियाह का कैसट



बुआ..दरवाजा कोलो....
कोलो जी...
खट्ट..खट्टट..धम्म...धम्म..

(..और जब मैंने दरवाजा खोला..)

इतने देर से दरवाजा कटकटा रही थी में..तुम कोली नहीं..
-खोल तो दिया बेटा...अंदर आ जाओ
नहीं...अंदर नहीं आना मेने..
चलो मेरे पापा के बियाह का कैसट लगा है टीबी में..
सभ लोग देक रहा है...तुम भी देक लो..

(उसकी बातें सुनकर जाने क्यों मेरी हंसी छूट गई)
मेरे हंसते ही उसका चेहरा जाने कैसा बन गया....
वो सकपकाई हुई सी मुझे ऐसे देख रही थी..जैसे मैंने उसकी कोई चोरी पकड़ ली हो...

मैंने कहा- तुम चलो..मैं दो मिनट में आती हूं...
वो पैर पटकते हुए चली और बोली- आओ चाहे मत आओ..फिर ना कहना अपने पापा के बियाह को मेने टीबी पर नहीं दिकाया...

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

भाई का साबुन..

वह भाई के साबुन से नहाने की जिद करती रही..मां ने उसके सिर पर दो लोटा पानी डालकर गाल पर दो थप्पड़ जड़ दिया और उसकी नाक, आंख, कान, मुंह को हाथों से ऐसा रगड़ा कि कोई और चीज होती तो उसका हुलिया बदल जाता।
 मां उसे वहीं छोड़ कर चली गई। वह जोर-जोर से रोती रही...शायद वैसे जैसे दादी की कहानियों में स्त्रियों के रोने पर जंगल की पत्तियां झड़ जाया करती थीं। जहां खड़ी होकर वह रो रही थी..वहांं भी तो एक नीम का पेड़ था...लेकिन उसका रूदन सुनकर एक भी पत्ती नहीं गिरी।

थोड़ी देर बाद मां अपने कमरे से तैयार होकर भाई को गोद में लेकर घर से बाहर कहीं चली गई। वह वहीं खड़ी होकर अभी भी रो रही थी। उसके देह का पानी सूख गया था। भाई का साबुन बगल में पड़ा था। लेकिन उसके लिए अब साबुन का कोई महत्व नहीं था।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

देखो...ये किस तरह से बताते हैं

कल शाम पड़ोस के एक घर में बैठी थी। तभी पड़ोसिन के बच्चे अपनी आंटी से मिलकर उनके मायके से आए। पड़ोसिन की देवरानी यानि उन बच्चों की आंटी प्रेग्नेंट थीं, और वह अपने मायके गई थीं। आंटी से मिलने की जिद करने पर पड़ोसिन ने बच्चों को उनके मायके भेजा था।
 बच्चों के वहां से लौटने के बाद पड़ोसिन अपनी देवरानी का हाल जानने के लिए बेताब थीं।
 उन्होंने सबसे पहले अपने बेटे से पूछा,  'बताओ ना आंटी कैसी दिख रही थीं '?
 बेटा बोला,  'जैसी यहां पर दिखती थीं"।
पड़ोसिन बोली,  'आंटी का पेट देखा कितना निकला था' !!
बेटा चिढ़ कर बोला,  क्या बात कर रही हो मम्मी, मैं यह देखने थोड़े ही गया था कि आंटी का पेट कितना निकला है...हां तुम जाने से पहले मुझे यह बात बोली होती तो मैं देख कर आता...मेरा तो ध्यान ही नहीं गया कि पेट कितना निकला है। हां....वो मोटी जरूर हो गयी थीं।
 पड़ोसिन ने फिर अपनी बेटी से पूछा,  'तू बता न चाची का पेट कितना निकला था' !!
बेटी बोली...अरे मम्मी, चाची का पेट तो तोंदूमल की तरह निकला था, उनको बहुत पसीना आ रहा था और मिचली भी। पैरों में सूजन  थी...वो कह रही थीं कि उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगता। मन घबराता है .....
बेटी की बातें सुनकर पड़ोसिन किसी सोच में गोते खाने लगीं ।

मैनें अक्सर देखा है...मर्द किसी बात को उस तरीके से नहीं कहते जैसे कि लड़कियां।

मेरे पिजाजी जब बुआ से मिलकर आते थे तब मां उन्हें पानी का गिलास थमाकर हालचाल पूछने बैठ जाती थी पिताजी उन्हें एक गिलास पानी जितना ही बुआ का हालचाल बताते। मतलब पानी खतम तो हालचाल खतम। फिर वो उठते और चले जाते। फिर बुआ का हालचाल  नहीं पूछा जाता।
मां बुआ का हालचाल उस ढंग से सुनना चाहती थी जैसे दो सहेलियां आपस में बतिआती हैं, लेकिन पिताजी कक्षा में पढ़ाए गए किसी अध्याय की तरह शुरू और  खत्म कर देते। मां को यह हजम न होता...और वह गुस्से के मारे दोबारा पूछती ही नहीं थीं।
लेकिन यह सच है कि जिस तरह औरतें किस्सा सुनाती हैं...मर्द उसकी बस शुरूआत भर ही कर पाते हैं।

रविवार, 14 सितंबर 2014

अब मैं क्या बताऊं जी !!



 देखते ही देखते फिर रविवार आ गया जी। हर सातवें दिन रविवार को आना ही है तो मैं इसकी प्लानिंग शनिवार को रात में ही कर लेती हूं जी। क्या है कि मेरे अंदर योग्यता तो नहीं लेकिन आलस ना कूट-कूट कर भरी है जी।

कल यानि शनिवार की रात सोने से पहले मैंने निश्चय किया कि रविवार को मैं तड़के सुबह उठूंगी। जब सूरज उगने से पहले अपने घर में सज-संवर रहा होगा। तब मैं जल्दी से उठकर कमरे से बाहर स्टूल (कुर्सी नहीं) निकालकर उस पर दोनो पैर ऊपर रखकर उकड़ू बनकर बैठ जाउंगी, और मुंह बाए..आंख ऊपर उठाकर सूरज को निकलते हुए देखूंगी जी। सूरज जब निकलता है ना तो उसे देखना मुझको बहुत अच्छा लगता है जी....कितना प्यारा रंग दिखता है उसका....लेकिन थोड़ी देर बाद जब धूप बिखरा देता है तो मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। निकलता हुआ सूरज बिल्कुल ऐसा लगता है...जैसे सुबह-सुबह घर से तैयार होकर ऑफिस के लिए निकले लोग...खुशदिल...तरोताजा...।

कई महिनों से मैंने सूरज को ना तो उगते देखा और ना ही डूबते जी। जब सूरज उगता है उस वक्त मैं किसी जन्नत में पसरी खर्राटे भर रही होती हूं और जब सूरज डूबता है उस वक्त ऑफिस के काम में खट रही होती हूं जी।  अब मैं क्या बताऊं जी !!

लेकिन शनिवार की रात खराब होना शायद पहले से ही तय था जी। अब मैं क्या बताऊं....मैं बताऊंगी तो लोग कहेंगे कि परेशानियां हैं कि मोहतरमा का पीछा ही नहीं छोड़तीं।
हुआ यह जी कि...शनिवार की रात जब मैं गहरी नींद में थी, उसी वक्त कमरे में कुछ गिरने की आवाज आई। मैं तो एकदम से डर गई जी। मैं उठी, और मोबाइल का टॉर्च जलाकर देखी तो एक डिब्बा लुढ़ककर बेड के पास पड़ा था जी। उस वक्त मेरा दिमाग दुनिया भर के भूत-प्रेत और चुड़ैलों का दर्शन करके वापस लौट आया...लेकिन डिब्बा गिरने की वजह नहीं पता चली जी। थोड़ी देर बाद मैं लाइट बंद करके फिर सो गई । अभी नींद लगी ही थी कि किसी के चीखने की आवाज कानों में पड़ी जी। मैं तो इस बार बेहद डर गई। मैं झट से उठी और कमरे की लाइट जलाई...देखी तो दरवाजे (जो कि लकड़ी का है और नीचे से थोड़ा टूट जाने से एक छोटा सुराख हो गया है) के नीचे से करीब आधा किलो वजन वाला मालगोदाम परिवार का एक चूहा निकलने की कोशिश कर रहा था जी। लेकिन भारी-भरकम शरीर के चलते उसमें अटक गया था।

मेरी समझ में नहीं आया कि मैं इसे कैसे निकालूं...अगर दरवाजा खोलती हूं तो सुराख में चप जाने से चूहे का राम नाम सत्य हो जाएगा। अब मैं क्या बताउं जी !!!

फिर मैंने पीछे से चूहे की पूंछ को जैसे ही छुआ...मानो उसपर वज्रपात गिर गया कि एक मनुष्य ने उसे छूने का दुस्साहस कैसे कर दिया...वह शायद भड़क गया...और अपने शरीर को पीछे की ओर धकेला और फिर से कमरे में आ गया। निकलने के बाद वह वहीं बैठा मुझे एक टक देखता रहा जैसे कह रहा हो कि कम से कम एक गिलास पानी तो पिला दो। बताओ जी....भला ऐसे भी चूहे होते हैं क्या...जो इंसानों को एक टक घूरते हों!!!

खैर, मैंने कमरे का दरवाजा खोल दिया और मोटू मल उसैन वोल्ट की रफ्तार में भाग गए। लेकिन इनके चलते मुझे दुबारा नींद नहीं आयी, और मैं सुबह होने का बेसब्री से इंतजार करने लगी। फिर तड़के सुबह ही मैंने कमरे का दरवाजा खोला....स्टूल बाहर निकाली...दोनों पैर ऊपर रख उकड़ू बन....मुंह बाए...आंख ऊपर उठाए...सूरज के निकलने का इंतजार करने लगी। लेकिन जुल्म की हद तब हो गई..जब खराब मौसम के चलते सूरज सात बजे तक नहीं निकला....बैठे-बैठे मुझे जोर की नींद आने लगी...फिर मैं कमरे में आकर लुढ़क गई....बाद में विश्वसनीय सूत्रों से पता चला जी कि सूरज साढ़े आठ बजे निकला। मुझे तो यह सूरज और चूहे की मिलीभगत लगती है जी। अब मैं क्या बताऊं जी।

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

घर से दूर..दिमाग का दही...नमक कम



घर से दूर एक ऐसे शहर में किराए का कमरा लेकर अकेले रहना, जहां से अपन के सारे दोस्त पलायन कर गए हों, जिंदगी किराए के कमरे और ऑफिस में कैद हो कर रह गई हो, तब कभी-कभी बेवजह की झुंझलाहट होती है। हम नकारात्मकता की नदी में गिर जाते हैं। ना ही ऑफिस का काम पसंद आता है और ना ही अपना बनाया खाना। पागल कर देने की हद तक दिमाग में वो सारी बातें आती हैं जो कभी भी हमें आगरा, रांची या बनारस के पांडेयपुर भेज सकती हैं। 

तब हम अपनी जिंदगी से सारी आह निकालने के लिए अहा जिंदगी जैसी मैगजीन में सकारात्मक बातें पढ़ते हैं। मन कुछ ठीक होने पर सोचते हैं चलो...आज जिंदगी जीते हैं....बढ़िया खाना बनाते हैं..मन लगाकर....जब खाना और बनाना खुद ही है...तो आज कुछ ढंग का पकाते हैं....यही सोचते हुए हम जेब से पैसे निकालते हैं और दुकान से पनीर ले आते हैं....इसके बाद-

-दो-चार प्याज, लहसुन, अदरक छीलकर बारीक काटते हैं, फिर उसे गिलास में रखकर बेलन के कूचकर उसका पेस्ट बनाते हैं (बता दें कि फिलहाल घर में मिक्सर या सील-बट्टा जैसी कोई व्यवस्था नहीं है)
इस दरम्यान बिजली चली जाती है और प्याज-लहसुन का पेस्ट बनाते-बनाते हम पसीने से इतने तर-बतर हो जाते हैं मानो किसी ढाबे पर कोयले की आंच पर खाना पका रहे हों।
-कढाई में तेल डालते हैं....पनीर को हल्का भूरा होने तक फ्राई करते हैं...फिर पनीर को प्लेट में निकालकर प्याज-लहसुन आदि का पेस्ट धनिया पावडर हल्दी वगैरह कढाई में डालकर धीमी आंच पर पूरे मसाले को भूनते हैं।
- टमाटर या पालक का पेस्ट डालते हैं..सब अच्छे से पक जाने पर उसमें पनीर डाल देते हैं
इतना करने में गर्मी के मारे हम पसीने से भीग जाते हैं...मानो किसी ने नदी में धकेल कर मुझे बाहर निकाल दिया हो।
- हम आटा गूथकर दो-चार रोटियां सेंकते हैं.....
थोड़ी ही देर में खाना बनकर तैयार।

जब सब कुछ बनकर तैयार हो जाता है तो सोचती हूं क्यों न नहा कर ही खाना खाऊं......बाथरुम में बतौर बाथरूम सिंगर गाते हुए आधे घंटे बाद नहाकर निकलती हूं। और पालथी मारकर जमीन पर खाने बैठती हूं
उफ्फ....पनीर में नमक ही नहीं...एक ही बार में मुंह फीका सा हो गया।
हाय राम....सारी मेहनत बेकार....किसी और को खिलाती तो दस गालियां देता।
मैं लौटकर आधे घंटे पहले कि दुनिया में जाती हूं....तो पता लगता है कि पनीर बनाते वक्त तो मैं किसी से फोन पर भी बात नहीं कर रही थी...कुछ सोच भी नहीं रही थी...फिर नमक डालना कैसे भूल गई।
खैर...पनीर में नमक मिलाई और फिर खाने बैठ गई। लेकिन स्वाद खतम हो जाता है ना...जब हम खाने में ऊपर से नमक छिड़क कर खाते हैं।
 
*हमारे यहां जब खेतों में काम करने वाले मजदूरों को खाना खिलाया जाता, तब वे नमक मांगते..यह कहते हुए कि सब्जी में नमक या तो डाला नहीं गया या कम है। लेकिन उसमें से एक मजदूर कभी नमक नहीं लेता...कम रहने पर भी। वह कहता....हम खाने में ऊपर से नमक डालकर नहीं खाते....यह खाने का स्वाद बिगाड़ देता है। पकाते समय ही नमक ठीक से डाला करो।