गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

हाय!! ये मेरी चुहिया जैसी पूंछ..

सिर के बाल तेजी से झड़ रहे हैं। बहुत चिंता हो रही है। ऐसे ही झड़ते रहे तो कुछ दिन में चुहिया की पूंछ की तरह हो जाएंगे। बचपन से ही लंबे रहे हैं मेरे बाल। बड़ी दीदी छुट्टियों में जब भी घर आती थीं, नाई के पास ले जाकर मेरा टकला बनवा देती थीं..और हम अपने सारे बाल को एक पॉलिथिन में भरकर हाथ में पकड़े रोते हुए घर चले आते थे।
पापा और दीदी में  मेरा टकला बनवा देने को लेकर हमेशा लड़ाई होती थी। पापा को लंबे बाल..लंबी चोटियां पसंद थी..जबकि दीदी कहतीं कि अभी ये छोटी है। बचपन में  जल्दी-जल्दी टकला बनवाने से हर बार पहले से ज्यादा घने बाल उगते हैं। बड़ी होगी तो इसके बाल घने, लंबे और सुंदर होंगे।

खैर..हुआ भी ऐसा ही..जब स्कूल जाने लगी तो मां बाल में पराशूट नारियल का तेल लगाकर लाल फीते से दो चोटियां बांधकर लटका देती थी..सुबह-सुबह जैसे गमले में बड़े-बड़े फूल खिल जाते हैं..वैसे ही। रोज फीते से बाल बांधने से बाल जल्दी ही बढ़ने लगे और काफी लंबे हो गए। फिर मां जब भी स्कूल के लिए मेरी चोटियां बनाती..स्कूल में दोपहर तक ही चोटियां ढीली हो जाती थी। फिर हम भी थोड़े बड़े होने लगे..तो समझने लगे कि ढीली चोटियां तो अच्छी ही नहीं लगती। फिर स्कूल जाते समय चाची से जिद करके चोटियां बनवाते। चाची लाल फीता लगाकर ऐसी कस की चोटियां बनातीं कि अपने सिर को इधर से उधर घुमाने में गर्दन के नीचे की त्वचा खींच जाती थी। रात में सोने के बाद भी चोटियां ढीली नहीं पड़ती थी। चाची के पास वक्त कम होता था..वे रोज मेरी चोटियां नहीं बनाती थी। चाची की बनायी चोटियों पर ही हम कंघी से आगे के बाल को थोड़ा चिकना कर हेयर क्लिप लगाकर चल देते थे।
गांव छूटा..पढ़ने के लिए जब शहर आए..तब पता चला कि लड़कियां कितने तरह से बाल कटाती हैं। और कौन सा कट कैसे चेहरे पर फबता है। लेकिन हम कभी बाल ना कटाए। हमें अपने लंबे बालों से बहुत प्यार रहा है। मां जब भी फोन करती अक्सर पूछती दूसरे लड़कियों की देखा देखी बाल तो नहीं कटाए? और मैं हंस कर उसे प्यारी सी सांत्वना देती। घर जाने पर मां धूप में बैठाकर बाल खींच खींच कर सरसो का तेल लगाते हुए बड़बड़ाती है कि बाल नहीं कटाकर महारानी जैसे हम पर एहसान कर दी हैं।देखो.. बाल कितने तेल  सोख रहे हैं फैशन के चक्कर में तो बालों पर ध्यान ही नहीं जाता। और मैं मां की बातें सुनते सुनते लुढ़क जाती हूं।

सच बताऊं तो बालों में तेल लगाती ही रही हूं। शहर का पॉलूशन..धूल मिट्टी..गाड़ियों के धुएं,खाने पीने में मिलावट और इन सबसे बढ़कर अपनी खुद की दिमागी टेंशन मेरे लंबे बालों को चौपट कर रही हैं। क्या करुं....वैसे डॉक्टर बत्रा तो बिना कहे ही समझ जाते हैं..उनके मैसेज से मेल बॉक्स भरा पड़ा है। 

रविवार, 6 अप्रैल 2014

कभी देखी है ऐसी चोरी?


अखबारों में पढ़ा था..लोगों से सुना था कि बालू की चोरियां भी होती हैं। आधी रात को या भोर के वक्त ट्रैक्टर भर-भर कर बालू नदियाें से गायब हो जाता है। लेकिन ऐसी चोरियां मैनें कभी नहीं देखी थी। नदी किनारे बैठे हुए एक दिन नदी में धीमी प्रवाह में आते हुए एक नाव पर नजर पड़ी। दूर से ही इतना पता चल पा रहा था कि नाव भरी है.. लेकिन यात्रियों से नहीं..बल्कि किसी और चीज से..।
नाव बहते हुए पास आ गई..बीच नदी..आंखों  के बिल्कुल सामने। चित्र में देखा जा सकता है बालू के वजन के साथ नाव में कितने लोग बैठे हैं..जो नदी से बालू चोरी करके ला रहे हैं..। इतने वजन के बाद भी नाव कैसे चल रही है..ये तो मुझे समझ में नहीं आया...लेकिन हां..मैने बालू की चोरी देख ली..वो भी ट्रैक्टर की ट्राली में भरी नहीं..बल्कि नाव में भरी।

कैसे लगता है धंधे पर बट्टा!!


लख्खू प्रजापति पेशे से कुम्हार है। पिछले पचास सालों से बाप-दादा के इस पुस्तैनी धंधे को सीने से लगाए बैठे हैं। देश में चुनाव की गर्मी है। किसी विशेष की हवा भी चल रही है। लेकिन इनकी झोपड़ी को यह हवा नहीं छूती। ना इनके जीवन में मोदी हैं.. ना ही कोई और पार्टी। आधुनिकता ने इनकी रोजी-रोटी पर बट्टा लगा दिया है।इतना की  मिट्टी के बर्तन रखे रह जाते हैं और लोग खरीदने नहीं जाते। स्थिति यह आ गयी है कि दो जून की रोटी के लिए इस उम्र में पत्नी के साथ दूसरों के खेतों एवं घरों में मजदूरी करते हैं।



दिन भर की मेहनत के बाद मिट्टी से गढ़े गए हैं ये सुन्दर मटके..शाम की हल्की धूप ले रहे हैं।
खुद का पैर पसारने की जगह नहीं है...लेकिन जितना भी जगह है उसमे उन्होंने मिट्टी के बर्तनों को करीने से सजा कर रखा है ताकि मेहनत पर पानी ना फिरे और ये नाजुक बर्तन सुरक्षित रहें।

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

भूख तो मार ही डालती..


कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र अपने तीन मित्रों के साथ फिल्म देखने गए। रात का शो था इसलिए लौटने में रात के साढ़े ग्यारह बज गए। भूख तेज लगी थी..इतनी रात को कहीं कुछ खाने के लिए नहीं दिख रहा था।कमरे पर पहुंचकर खाना बनाते तब कहीं जाकर खाते..। लेकिन यहां तो भूख के मारे जान जा रही थी। रास्ते भर सड़क किनारे घूरते हुुए चले आ रहे थे कि कहीं कुछ खाने को मिले तो जान में जान आए। काफी दूर चलने के बाद बाटी चोखा बिकने वाला एक ठेला दिखा। मित्र अपने दोस्तों के साथ दौड़े  जैसे जो पहले पहुंचेगा वो ज्यादा खाएगा।बाटी -चोखा वाला सारा सामान समेट चुका था और अपने लिए पांच बाटियां सेंक रहा था। इन लोगों ने उससे निवेदन किया कि बड़ी भूख लगी है कुछ खिला दो। वह बोला सिर्फ पांच बाटियां हैं ..दिन भर बेंच कर थक गया हूं ..जोर की भूख लगी है मुझे ..मैं किसी को नहीं खिलाउंगा। इन लोगों ने कहा चाहे जितने पैसे ले लो...लेकिन खिला दो। वह बोला बाटी अभी कच्ची है..उपले ठंडे पड़ गए हैं...ठीक से सेंक नही पाया हूं...।चारों ने चार कच्ची बाटियां उठायी और राक्षसों की तरह खाने लगे..हालांकि बाटी मुंह में जाने पर गीला आटा बन चुका था। लेकिन भूख में उन्हें यह किसी अमृत से कम नहीं लग रहा था। सिर्फ एक बाटी बची थी जो बेचने वाला खाया।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

अपने-अपने जुगत में...


एक नदी के किनारे का दृश्य है ये। देखिए ना..ये दोनों कैसे अपने जुगाड़ में लगे हैं एक नदी के किनारे का दृश्य है ये। देखिए ना..ये दोनों कैसे अपने जुगाड़ में लगे हैं. बच्ची इन कचरों के ढ़ेर में सिक्का खोज रही है..तो कुत्ता खाने पीने का सामान...दोनों की जरूरत पेट भरना है...आजकल आदमी कुत्ता हो गया है या कुत्ता आदमी...मुश्किल हो रहा समझना.

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

ऐसे तो मेरी आस्था ही ना रहेगी!!!

 
शाम के समय कोई सामान या सब्जी खरीदने के लिए बाजार या चौराहे तक निकलती हूं । उस वक्त आसपास के मंदिरों में आरती हो रही होती है या हो चुकी होती है। मंदिर के पंडित जी आरती की थाली और गंगाजल लिए पास के दुकानों पर घूमते दिख जाते हैं। सब्जी के ठेले पर कई  बार ऐसे पंडित जी से पाला पड़ा है। बिना  कुछ पूछे भगवान   के नाम   पर बुदबुदाते हुए माथे पर रोली या तिलक टीप देते हैं। उसके बदले एक या दो रुपए उन्हें देना ही पड़ता है। ना देने पर वह हमारी विद्या के घटने या बढ़ने को लेकर ना जाने क्या-क्या बोलने लगते हैं और पीछा नहीं छोड़ते।

पंडित जी किसी भी सामान के दुकान पर इकट्ठे लोगो के माथे को ऐसे ही रंगते हैं और फुटकर-फुटकर में गुल्लक भरने लायक मुद्रा जमा कर लेते हैं।मंदिर में आरती रोज होती है...शाम को सब्जी भाजी जैसी चीजें खरीदने के लिए चौराहे तक आना ही पड़ता है। भगवान के नाम पर कुछ बुदबुदाते हुए पंडित जी वहीं पत्थर बन जाते हैं।

ऐसी चीजें कभी-कभी ही अच्छी लगती हैं। रोज माथा रंगवाना अचानक पागल हो जाने के बराबर लगता हैं। सब्जी वाले के यहां एक-दो रुपए उधार रह जानें की चिन्ता नही रहती जितनी  इस पंडित के थाली में झोकने की। रोज की बात है यार...ऐसे तो पंडित जी भगवान से आस्था ही खतम कर देंगे। हद है...नहीं?

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

इनके लिए एक ही इच्छा रहती है!!!



एक संयुक्त परिवार में अपने भाईयों में सबसे छोटे व्यक्ति ने कल जमीन खरीदी। वह खाली जमीन उनके घर के ठीक बगल में थी और बेचनेवाले से वह सिर्फ इसलिए खरीदना चाहते थे कि उनके घर से सटी वह जमीन उस घर का एक हिस्सा बन जाएगी। उनके घर में अब तक जमीन खरीदने का काम उनके बड़े भाई किया करते थे जब तक कि उन्हें उम्मीद थी कि एक ना एक दिन उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी, हालांकि उनकी दो बेटियां हैं। व्यक्ति ने अपने भाई कि मनःस्थिति को देखकर कुछ भी पूछना उचित नही समझा और जमीन हाथ से निकलती. इससे पहले खुद ही खरीद ली।

 समाज में आजकल कुछ ऐसे लोग भी हैं जो घर में बेटा न होने का कोई गम नहीं करते, बेटियों को मानते हैं, अच्छी शिक्षा देते हैं। लेकिन अगर घर में बेटा होता तो शायद वह प्यार दुलार या सिर्फ अच्छी शिक्षा तक ही सीमित ना होता। एक समय आता है जब बेटा बड़ा भी नहीं हुआ होता है और मां-बाप को अपना घर बित्ते भर का लगने लगता है। और बेटे के नाम फ्लैट खरीदने की जुगत होने लगती है। माता-पिता जीवन भर बेटे के लिए पर्याप्त जमीन एवं सुविधाएं खरीदने में परेशान रहते हैं, और जितना खरीदते हैं वो सब उन्हें उतना ही कम लगता है। इस चक्कर में वे बेटे की कई पीढ़ियों के लिए सुविधाएं जुटा जाते हैं।
 
बेटियां का जन्म तो घर से सिर्फ विदा लेने के लिए होता है। मायके से ससुराल और ससुराल से मायके। बेटियों को लेकर मां-बाप के अरमान जमीन या फ्लैट जैसे नहीं होते। लेकिन एक अच्छे वर के साथ मोटे दहेज की चिन्ता जरूर रहती है। यह चिंता  शायद बेटी के जन्म के बाद से ही हो जाती है। दो बेटियों से भरे घर में सिर्फ एक बेटे के ना होने से मां-बाप को लगता है इतना बड़ा घर और रहने वाला कोई नहीं। उस वक्त घर में बेटियों की गिनती न के बराबर होती है।मां-बाप हमेशा मुरझाए रहते हैं जैसे जीवन में कोई रस ही नहीं। पड़ोसिन से बात करते हुए मां अक्सर रो दिया करती जैसे एक बेटे के बिना वह कितनी बेबस कितनी लाचार है। बेटा होता तो वह एक नहीं कई बार मुहल्ले की औरतों से पूछती कहां खरीदी नई जमीन, कितने का लिय़ा नया फ्लैट।.क्या घर और जमीन की जरुरत बेटियों को नहीं पड़ती?