जब सूरज अपना शिफ़्ट खत्म कर
अस्त होता है उसी वक्त घर के पीछे से एक रेलगाड़ी हल्ला मचाते हुए सरक जाती है।
चहचहाते हए परिंदों का झुंड तेजी से अपने घर भागता है। आसमान में सन्नाटा पसर जाता
है। बादल जैसे मर जाता है। शाम की यह बेला बेहद बोझिल लगती है मुझे।
वही कमरा, वही चादर, वही
तकिया...हर एक का रंग अपनी उम्र से भी ज्यादा पुराना मालूम पड़ता है। पसंदीदा
गाने, जिन्हें एक बार सुनने से मन नहीं भरता था..बजकर कब बंद हो जाते हैं... कुछ
पता नहीं चलता।
मोबाइल में पड़े 100-200
नंबर रद्दी मालूम होते हैं। चाय की एक घूंट से जान पर बन आती है।
किताब में लिखी बातें सिर
के उपर से गुजर जाती हैं। बच्चों की आवाज मानों इसी वक्त कर्कस लगती है।
टीवी ढकोसले की दुनिया औऱ
फेसबुक ट्विटर जैसे रैम्प ऊबाउ लगते हैं। नकारात्मक बातें क्या होती हैं शायद इस
वक्त से पहले कभी पता ही नहीं होता।
जब कुछ ऐसा होता है...जब
कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जब कुछ ऐसा लगता है..जैसे वक्त थम गया।
तब मन करता है, हाथ बांध कर समंदर के किनारे
खड़े रहने का..बालों को हवा में आजाद छोड़ देने का...ठंडी हवा के तेज झोके को अपने
में समा लेने का...समंदर की लहरों से अठखेलियां करने का..जो सूकुन दे..एक एहसास
दे। लेकिन अफ़सोस...हर शहर में समंदर नहीं होता।