रविवार, 27 अक्तूबर 2013

इतवार का कीमा बन गया!!!



जैसा कि होता तो बहुते कुछ है, लेकिन हम हर चीज लिखते नहीं हैं ना...दिमाग तो वैसे ही भन्नाया था लेकिन एक जाने बोले कि लिख दो परेशानी कम हो जावेगी। एही खातिर हम लिख रहे हैं--

का है कि हम अपने रुम मेट से बड़ा पर्सान रहते हैं..काहें कि वह शादीशुदा है, उसके चूड़ियों और पायलों की खनक उनकी जगह हम सुनते हैं, श्रृंगार हम निहारते हैं.... और बस यही नहीं कमरे में एक बेड होने के कारण एक साथ सोते भी हैं। अब आगे का बतायें... शायद इन्ने से ही मेरी पर्सानी लोगों की समझ में आ जाए।

हां तो बात ये है कि हम दूसरी मंजिल पर रहते हैं, पहली मंजिल पर एक कमरा खाली हुआ, तो मैनें सोचा कि क्यों न उसी में शिफ्ट हो जाऊं..कम से कम अलग बेड पर सोने को तो मिलेगा।
मकान मालकिन से बात की तो एक दो बार मुझे गौर से देखने के बाद तैयार हो गयीं और कमरे की चाभी मुझे पकड़ा दी। हम सोचे कि आज अत्तवार है, छुट्टी है, सामान रखवाने में कोई ना कोई तो मदद कर ही देगा। दो तीन लड़कियों से थोड़ी मदद करने को बोली तो जवाब मिला- बाल में तेल लगाकर गुनगुनी धूप ले रही हूं, किसी और को ले लो...

जब कौनों नहीं आयीं तो अपना काम खुद करना चाहिए का जज्बा मन में लेकर हम चौबीस सीढियों का सफर तय करके नीचे उतरे और दस बारह दफे सीढ़ियों को खांचने के बाद कुल सामान नीचे के रुम में लाकर पटक दिए।
इसी बीच फोन भी बजा, बड़ी बहन का फोन था, मैनें बताया कि ऊपर का कमरा छोड़कर नीचे वाले कमरे में शिफ्ट हो गयी...बहन बोलीं अच्छा नया कमरा है, एक काम करना, एक ठो नारियल जरुर फोट देना। मैने कहा- घर नहीं खरीदा है जो नारियल फोड़ू?... लेकिन हुकुम मिला- नारियल जरुर फोड़ देना।
एक ठो लड़के को रुपया देकर नारियल मंगायी...कमरे की एक-एक आलमारी साफ की। किताबों औऱ बाकी सामानों को करीने से सजायी। मन खुश था कि अब चैन से रहूंगी। सिर्फ नारियल फोड़ना बाकी था कि एक आफत आ गयी।

मेरे अदद मकान मालिक अपनी इकलौती बीबी को डांटते हुए मेरे पास आए औऱ बोले कि आप ऐसा करिए, जिस कमरे में आप रहती हैं आप उसी में रहिए। मैने कहा -अंकल मैनें तो अब सारा सामान शिफ्त कर लिया। वे बोले कि ये कमरा पहले से ही बुक हो गया था लेकिन मेरी मिसेज को पता नही था इसलिए आपको फिर उसी कमरे में जाना पड़ेगा। मकान मालिक का मकान था मेरे पड़ोसी का तो था नहीं की जबरदस्ती बतियाते।

हम तो कपार पकड़ कर बैठ गए। सामान नीचे शिफ्ट करवाने में किसी ने कोई मदद नहीं की तो पुनः जहां से आया वहां पहुचाने में कोई मदद करे सवाल ही नहीं उठता था।
उफ्फ..आगे की लाइन लिखने में बड़ा दर्द का एहसास हो रहा है, सारा सामान बांध कर फिर से चौबीस सीढ़ियों को बारह बार रौंद कर सारा सामान जहां का तहां पटके....गिलास, प्लेट और चम्मच नीचे से दोबारा ऊपर आने को बिल्कुल तैयार नहीं थे..लाते वक्त सीढ़ियों पर ऐसा गिरे कि फिर चौबीस सीढ़ी नीचे पहुंच गए। खैर सारा सामान तो आ गया लेकिन उसे करीने से सजाने की हिम्मत नहीं हुई।

आज तक मैहर देवी नहीं गयीं हूं लेकिन आज पचास दफे चौबीस सीढ़ियां चढ़ने उतरने से यह बात गर्व से कह सकती हूं कि जब कभी भी वहां जाऊंगी सीढ़ियां आसानी से चढ़ जाऊंगी। और हां....कमरे के एक कोने में पड़ा नारियल मेरा मुंह ताक रहा है, उसका क्या करुं समझ में नहीं आ रहा। भगवान को तो नहीं ही चढ़ाउंगी। उसका औऱ कुछ किया जा सकता है तो कोई बताए??

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

देहाती औरत...



मैं देहाती संस्कृति में पली-बढ़ी हूं और अपनी मां-दादी समेत तमाम देहाती औऱतों की जिंदगी से बहुत करीब से वाकिफ हूं। वह अपने जीवन में चाहे कितना ही दुख क्यों न उठाती हों दूसरों को हमेशा अपने से बेहतर जिंदगी देती हैं। वह ना तो आग हैं ना ही शबनम हैं लेकिन जो भी हैं कहीं कमतर नहीं हैं।

पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत के प्रधान मंत्री को देहाती औऱत कहा। नवाज शरीफ किस तरह की देहाती औरत से वाकिफ हैं वह देहाती औऱत जिसने अपना कलेजे पर पत्थर रखकर अपने लाल को देश की रक्षा के लिए भेजा है, या वह देहाती औऱत जिसका बेटा आइएस पीसीएस बन कहीं अपनी सेवा दे रहा है तो कही डॉक्टर इंजीनियर के रुप में मौजूद है।

देश के प्रधानमंत्री को देहाती  औरत की संज्ञा देना क्या  उन महिलाओं  की अस्मिता पर चोट करने जैसा नहीं है, जो हर हाल में औऱ हर परिस्थिति में मौजूद हैं किसी ना किसी रुप में।

अगर दशरथ मांझी किसी को याद हैं तो  ये भी मालूम होगा कि उनके पहाड़ जैसे हौसले के पीछे उनकी देहाती औऱत का हाथ था।

देहाती औरतें शरीर से पसीना  बहाती  हैं, दिन भर घर के कामों में  खटती हैं। कुएं से पानी निकालती है, जानवरों को नहलाती हैं। खेत से घास भी काट लाती हैं, साथ में बच्चे को भी पालती हैं। भैंस का दूध निकालती है, तो पड़ोसी की बेटी की शादी में नाच भी आती है।

ओखली चक्की में कुटाई-पिसाई भी करती हैं, चूल्हा फूंकती हैं, धुएं में आंसू बहाकर भोजन भी पकाती हैं। देहाती औरतें जब गाने बैठती हैं तब जानवर भी ठिठक जाते हैं, और जब रोती हैं तो पेड़ की पत्तियां भी झड़ जाती हैं।
देहाती औरत खेत में काम कर रहे मर्द के लिए खाना पहुंचाती है, तराजू पर मजदूरों की मजदूरी तौलकर देती है।  पति  के कोर्ट कचहरी  के कागजात ना समझ में आते हुए भी अपने किसी प्रिय गहने की भांति सहेज कर रखती है।
देहाती औऱत जितना जानती है उसी ज्ञान को दूसरों में बांटकर मास्टर बना देती है। देहाती औरत दुनिया  नहीं घूम पाती है लेकिन  कुएं  का मेढ़क भी नहीं होती। देहाती औरत गांव में आशा  का काम करती है तो बलात्कार के विरोध प्रदर्शन में दिल्ली भी पहुंच जाती है। देहाती औऱत अपनी भागीदारी देती है हर हाल में, हर परिस्थिति में।
देहाती औऱत शिक्षा के मामले  में भले ही थोड़ी कमतर हो लेकिन हर एक चीज विधि से करना जानती है। वह गूंगी नहीं होती है, अवसर मिले तो विरोध करना जानती है। देहाती औरत रद्दी नहीं एक बेसकीमती एहसास है।

देहाती औऱतों को पहचानना सबकी औकात नहीं है ना ही सबके बस की बात है। जब ज्ञान की  कमी हो तो जुबान ज्यादा तेज चलती है। ऐसे ही ज्ञान के अभाव में प्रधानमंत्री  को देहाती  औऱत की  उपाधि  से नवाजा गया है।








रविवार, 6 अक्तूबर 2013

यह खुशनुमा मौसम..



कितना सुखद औऱ प्यारा है यह महिना, अक्टूबर का महिना। रात में  मीठी ठण्डक तिस पर बेवजह बारिस की फुहारें। दशहरे  की  धूम है, जगह-जगह शहर रंग-बिरंगे मोती की मालाओं सा सजा है। दिवाली कगार पर खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही है।

जूही चमेली रातरानी के साथ-साथ पारिजात का भी खिलने लगा है। सुबह की सैर पर निकलो तो ऐसा महसूस होता है, मानो किसी ने छत्तीस फूलों की खुशबू को निचोड़ कर वातावरण में घोल दिया हो।

पीली कनेर भी मानो हमें ही देख कर पेड़ से  अपने गिरने की अदा दिखाती है।जूही चमेली भी हमारे बालों में गजरा बनकर सजने को ताकती हैं।

सब्जी वाला सुबह-सुबह जब मूली-पालक-गोभी से सजाए ठेले को बगल से सरकाते हुए निकलता है तो अनायास ही पालक के बीच से झांकते सोए की महक हमें पलट कर देखने पर विवश करती है।

घास पर पड़ी ओस की बूंदे मानों उनकी सुंदरता बढ़ाने के लिए ही आती हो। कैसा खिलखिलाता रंग चढ़ जाता है घासों पर।

अंग्रेजी के शब्दों से नवाजें तो हमें तो बड़ा हॉट लग रहा है ये मौसम। खुशनुमा, लुभावना औऱ बेहद आनन्दमय।

इनकी मेहनत, उनकी कोफ्त....



कल बाजार से सब्जी लेकर लौटते वक्त एक ठेले पर चाट खाने के लिए रुकी। एक आंटी जी ठेले वाले को कह रही थी वो ब्रदर चाट में ऑनियन कितना कम डाले हो खाने में मजा नहीं आ रहा है।
चाट खाने वाली आंटी जी हमारी परिचित थीं। हमने कहा क्या बात है आंटी जी, आजकल अंग्रेजी के शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल कर रही है। हालांकि यह बात मैने मज़ाक में कही, लेकिन आंटी जी बिल्कुल सीरियस हो गयीं और बोलीं- अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल में गोलू का नाम लिखाया है। तुम तो जानती हो कि हमलोग कम पढ़े लिखे है, औऱ अंग्रेजी तो बिल्कुल पल्ले नही पड़ती। जैसे-तैसे करके पैरेन्टस मीटिंग में जाती हूं, वो भी अकेले। तुम्हारे चाचा साथ तो जाते हैं लेकिन स्कूल के गेट पर ही खड़े रहते हैं।

मुहल्ले वाले खिल्ली उड़ाते हैं कि भाई फैशन चल दिया है, आजकल हर कोई अपने बच्चे का दाखिला अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में करा दे रहा है। 
हम बस यही चाहते हैं कि हमारा बच्चा अच्छे स्कूल से पढ़ाई करे। इसके लिए हम मोहल्ले ही नहीं बल्कि स्कूल से गोलू की टीचर से भी डांट सुनते हैं। मैं उसकी स्कूल डायरी नहीं पढ़ पाती लेकिन उसे अंग्रेजी में बात नहीं कर पाती लेकिन सिर्फ इतने से ही क्या मेरा बच्चा स्कूल ना जाए।

देखा जाय तो आंटी जी कि चिंता जायज थी। सामाजिक मुद्दों पर कलम चलाने वाले एक सज्जन से जब मैने इस मुद्दे पर बात की तो  उन्होंने कहा कि इंसान चाहे किसी भी परिस्थिति में गुजारा करता हो लेकिन अपने बच्चों के लिए हमेशा बेहतर विकल्प ढूढ़ता है। कम या बिल्कुल भी ना पढ़े-लिखे लोग भी यह बात बखूबी जानते हैं कि आज अंग्रेजी माध्यम के शिक्षा की ज्यादा मांग है।
लेकिन बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देना एक स्टेटस सिंबल भी बन गया है। आंटी जी से उनके मुहल्ले वालों को इसलिए चिढ़ है कि उनके पति महज एक मोबाइल फोन की दुकान चलाकर अपना खर्च चलाते हैं लेकिन बच्चे को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ा रहे हैं। साथ ही यह भी एक कारण है कि जो मां-बाप ठीक से हिंदी बोलने में असमर्थ हैं उनका बच्चा अंग्रेजी स्कूलों के बस में में बैठकर जाता है तो लोगो को खटकता है।
जिस हिसाब से चीजें बदल रही हैं, लोगों की मानसिकता भी वैसे ही परिवर्तित हो रही है। पिता कहता है कि हम जीवन में कुछ नहीं कर पाए तो क्या हुआ हम अपने बच्चे को बेहतर शिक्षा देकर बड़ा आदमी बनाएंगे, इसके लिए वह दिन रात परिश्रम भी करता है। लेकिन समाज के परिहास से बच नहीं पाता।
कुछ लोग जो अपने को मध्यमवर्गीय मानते है वह निम्न मध्यमवर्गीय लोगों को अपने से बेहतर हालत में देखना कम पसंद करते हैं। यहां सिर्फ बच्चे के अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ने की ही बात नहीं है। बल्कि उनके अच्छे रहन-सहन से भी अन्य लोगों को कोफ्त होती है।
मैने आंटी जी को समझाया कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हम जिस समाज में रहते हैं उसमें भांति-भांति के लोग हैं, सबकी अपनी सोच है। आप सोचती हैं कि आपका बच्चा बेहतर शिक्षा प्राप्त करें लेकिन समाज सोचता है कि आप अपने औकात से बाहर का काम कर रही है। आप घबराइए नहीं लोगों का सामना करिए, जब लोग कहते हैं तो आप उनको भी अपने बच्चे की अच्छी शिक्षा पर ध्यान देने के लिए कहिए।
औऱ हां...अपनी अंग्रेजी सीखने की ललक यूं ही जारी रखिए, इससे अपने बच्चे के होमवर्क में मदद तो मिलेगी ही मुहल्ले की बाकी औऱतों को भी सीख मिलेगी।

सोमवार, 30 सितंबर 2013

मूड ही तो है....


एक काम के सिलसिले में काफी भागदौड़ औऱ थकान के बाद एक पेड़ की छाया में बैठी थी। थकान से दिल और दिमाग दोनो सुन्न पड़ गया था। तभी घर से मां का फोन आया। फोन उठाते ही उन्होंने किसी बात को लेकर मुझे डांटना शुरु कर दिया। मुझे बहुत बुरा लगा और मैने बीच में ही फोन काट दिया। मूड औऱ ज्यादा खराब हो गया था जिसके चलते शाम को कोई काम नही कर पायी।
 बाद में दीदी को फोन करके कहा कि मां को कह दें कि कभी भी कुछ भी ना बोल दिया करें। इंसान कहां होता है, किस काम में फंसा होता हैं, ना जाने किस मूड में होता है। लेकिन फोन करने वाला किसी भी समय कुछ भी सुना कर खाली हो जाता है, चाहे सुनने वाले का मूड कैसा भी क्यों न हो। दीदी ने कहा-अरे मां की बातों का क्या बुरा मानना उनको तो बस अपनी बात कहनी होती है। उन्हे इस बात का अंदाजा थोड़े ही रहता है कि तुम उस समय कुछ काम कर रही होगी या उनकी बातों का बुरा मान जाओगी।
सिविल सेवा में चयनित एक महिला ने अपने इंटरव्यू में बताया कि उसके जीवन का सबसे कमजोर पहलू उसका मूड है । मूड के चलते कभी-कभी काम समय पर नहीं हो पाता जिससे नकारात्मक भावना मन में आती है।
देखा जाय तो चीजों का अच्छा या बुरा लगना मूड पर ही निर्भर करता है। अच्छे मूड मे कभी-कभी खराब चीजों से भी मन नही उखड़ता तो कभी खराब मूड में अच्छी चीजें भी बुरी लगती है।
हम पर पापा को प्यार कब आता है, मां को गुस्सा कब आता है, भाई को शैतानियां कब सूझती हैं औऱ हमे यह सब कब अच्छा लगता है .यह सब बातें मूड पर निर्भर करती हैं।
  कभी-कभी मूड ना होने पर भी कुछ चीजों को करना पड़ता है, मन ना होने पर भी ना तो ऑफिस छोड़ी जा सकती है ना ही क्लास। आए दिन ऐसा मन होता है कि आज ऑफिस ना जाएं लेकिन बार-बार ऐसा नहीं कर सकते।
हमारी दिनचर्या ही हमारे अच्छे या खराब मूड पर निर्भर होती है। मूड नही किया तो व्यायाम नही किया, ज्यादा सो लिया, सुबह के कुछ काम को शाम के लिए छोड़ दिया। इससे दिन भर कुछ भारी-भारी सा लगता है। अच्छे मूड के लिए जरुरी है ज्यादा से ज्यादा खुश रहना, अपना हुनर दूसरों को सीखाना तथा प्रकृति की चीजों से लगाव होना औऱ अपने जीवन तथा काम से संतुष्ट रहना। फिर चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों, मूड कैसा भी हो, बेवक्त कही जाने वाली बातों का भी आप पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा।