गुरुवार, 3 जुलाई 2014

सब निभाना पड़ता है....

किसी काम की वजह से कुछ दिनों तक जब रिश्तेदारी में ठहरने की बात चलती है ठीक उसी वक्त रिश्तेदारों की तरफ से एक और सवाल पूछा जाता है। यह सवाल ऐसा होता है जो उनके मुंह से नहीं निकलता लेकिन हमें सुनाई देता है,  और इसका जवाब भी हम कुछ ऐसे देने की कोशिश करते हैं कि जिस भाषा में उन्होंने सवाल पूछा है, उसी भाषा में उन्हें उत्तर  मिल जाए। दो चार  दिन से ज्यादा नहीं रहेंगे- इसी एक सवाल की देनदेन करने में दोनों पक्ष मूकबधिर बन जाते हैं।
जब दोस्तों -यारों से शहर वीरान पड़ा हो तब अपने उसी रिश्तेदार के यहां रुकना मजबूरी बन जाती है जिसने हमें वर्षों से नहीं देखा। उनके यहां लगातार अपनी मांग देखकर मन उछल उठता है..और जी में यही आता है कि तीन-चार दिन तो यूं ही कट जाएंगे और आखिर में वे यह कहेंगे कि दो-चार दिन औऱ रूक जाती तो अच्छा था। लेकिन यह खयाली पुलाव हमें उस वक्त दुख देता है जब हम दूसरे ही दिन उनके घर से भागने की कोशिश करते हैं।
मेरा मानना है कि जीवन में यही एक अनुभव है जो दो-चार दिनों की कम अवधि में ही प्राप्त हो जाता है। इन दो-चार दिनों की बातें बाकी के रिश्तेदारों के बीच ऐसे फैलायी जाती हैं जैसे हम उनके घर चार साल बिता कर आए हों। इतना तो आज तक हम खुद को नहीं जान रहे होते जितना इन दो-चार दिनों में रिश्तेदार हमें और हम रिश्तेदार को जान लेते हैं।
यूं तो रिश्तेदारी के वे दो-चार दिन फिल्मी नहीं हैं अन्यथा मैं कहती कि उन्होंने मुझे चाय नहीं दिया, अपने घर में झाडू लगवाया, नहाने के लिए टंकी का पानी खत्म कर  शाम तक इंतजार करने को कहा।

जीवन में बहुत सी बातें जुल्मी होती हैं लेकिन फिल्मी नहीं। अन्यथा दिमाग  तो अपना भी चलता है, कि रिश्तेदार की प्रताड़ना नहीं सहेंगे। किसी गेस्ट हाउस में रह लेंगे लेकिन रिश्तेदार के घर नहीं आएंगे।

रिश्तेदार के घर से विदा लेते वक्त एक सवाल औऱ पूछा जाता है जो हमारे अलावा भी कई लोग सुनते हैं- अगली बार कब आना होगा!! और इसका जवाब हम यूं देते हैं कि सिर्फ यह पूछने वाला ही सुन पाता है।

कोई टिप्पणी नहीं: