बुधवार, 4 सितंबर 2013

यदि गुरु ऐसे होते हैं तो ना होना बेहतर....


(ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा “जूठन” का अंश)

चौथी कक्षा में थे। हेडमास्टर बिशम्बर सिंह की जगह कलीराम आ गए थे। उनके साथ एक औऱ मास्टर आए थे। उनके आते ही हम तीनों के बहुत बुरे दिन आ गए थे। बात बेबात पर पिटाई हो जाती थी। राम सिंह तो कभी-कभी बच भी जाता था, लेकिन सुक्खन सिंह और मेरी पिटाई तो आम बात थी। मैं वैसे भी काफी कमजोर औऱ दुबला-पतला था उन दिनों।
सुक्खन के पेट पर पसलियों के ठीक ऊपर एक फोड़ा हो गया था, जिससे हर वक्त पीप बहती रहती थी। कक्षा में वह अपनी कमीज ऊपर की तरफ मोड़कर रखता था, ताकि फोड़ा खुला रहे। एक तो कमीज पर पीप लगने का डर था, दूसरे मास्टर की पिटाई के समय फोड़े को बचाया जा सकता था।
एक दिन मास्टर ने सुक्खन सिंह को पीटते समय उस फोड़े पर ही एक घूंसा जड़ दिया। सुक्खन की दर्दनाक चीख निकली। फोड़ा फूट गया था। उसे तड़पता देखकर मुझे भी रोना आ गया था। मास्टर हम लोगों को रोता देखकर लगातार गालियां बक रहा था। ऐसी गालियां जिन्हें यदि शब्दबद्ध कर दूं तो हिंदी की अभिजात्यता पर धब्बा लग जाएगा। क्योंकि मेरी एक कहानी “बैल की खाल” में एक पात्र के मुंह से गाली दिलवा देने पर हिंदी के कई बड़े लेखकों ने नाक-भौं सिकोड़ी थी। संयोग से गाली देनेवाला पात्र ब्राह्मण था। ब्राह्मण यानी ब्रह्रा का ज्ञाता और गाली….।
अध्यापकों का आदर्श रुप जो मैनें देखा वह अभी तक मेरी स्मृति से मिटा नहीं है। जब भी कोई आदर्श गुरु की बात करता है तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं जो मां-बहन की गालियां देते थे। सुंदर लड़कों के गाल सहलाते थे औऱ उन्हें अपने घर बुलाकर उनसे वाहियातपन करते थे।
एक रोज हेडमास्टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, “क्या नाम हे बे तेरा?”
“ओमप्रकाश,” मैंनेडरते-डरते धीमे स्वर में अपना नाम बताया।
हेडमास्टर को देखते ही बच्चे सहम जाते थे। पूरे स्कूल में उनकी दहशत थी।
“चूहड़े का है?” हेडमास्टर का दूसरा सवाल उछला।
“जी।”
“ठीक है…वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा औऱ टहनियां तोड़के झाड़ू बणा ले। पत्तों वाली झाड़ू बणाना। औऱ पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो यो खानदानी काम हे। जा….फटाफट लग जा काम पे।“
हेडमास्टर के आदेश पर मैने स्कूल के कमरे, बरामदे साफ कर दिए। तभी वे खुद चलकर आए औऱ बोले, “इसके बाद मैदान भी साफ कर दे।“
लंबा-चौड़ा मैदान मेरे वजूद से कई गुना बड़ा था, जिसे साफ करने से मेरी कमर दर्द करने लगी थी। धूल से चेहरा, सिर अंट गया था। मुंह के भीतर धूल घुस गई थी। मेरी कक्षा में बाकी बच्चे पढ़ रहे थे औऱ मैं झाड़ू लगा रहा था। हेडमास्टर अपने कमरे में बैठे थे लेकिन निगाह मुझ पर टिकी थी। पानी पीने तक की इजाजत नहीं थी । पूरा दिन मैं झाड़ू लगाता रहा। तमाम अनुभवों के बीच कभी इतना काम नहीं किया था। वैसे भी घर में भाइयों का मैं लाड़ला था।
दूसरे दिन स्कूल पहुंचा। जाते ही हेडमास्टर ने फिर झाड़ू के काम पर लगा दिया। पूरे दिन झाड़ू देता रहा। मन में एक तसल्ली थी कि कल से कक्षा में बैठ जाऊंगा।
तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, “अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहां घुस गया…अपनी मां ..…”
उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर कांपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा, “मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में।“
हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, “जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू…नहीं तो उसमें मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूंगा।“
भयभीत होकर मैंने तीन दिन पुरानी वही शीशम की झाड़ू उठा ली। मेरी तरह ही उसके पत्ते सूखकर झरने लगे थे। सिर्फ बची थीं पतली-पतली टहनियां। मेरी आंखों से आंसू बहने लगे थे। रोते-रोते मैदान में झाड़ू लगाने लगा। स्कूल के कमरों की खिड़की, दरवाजों से मास्टरों औऱ लड़कों की आंखें छिपकर तमाशा देख रही थीं। मेरा रोम-रोम यातना की गहरी खाई मे लगातार गिर रहा था।
मेरे पिताजी अचानक स्कूल के पास से गुजरे। मुझे स्कूल के मैदान में झाड़ू लगाता देखकर ठिठक गए। बाहर से ही आवाज देकर बोले,” मुंशी जी, यो क्या कर रा है? वे प्यार से मुझे मुंशी जी ही कहा करते थे। उन्हें देखकर मैं फफक पड़ा। वे स्कूल के मैदान में मेरे पास आ गए। मुझे रोता देखकर बोले, “मुशी जी..…रोते क्यों हो? ठीक से बोल क्या हुआ है?”
मेरी हिचकियां बंध गई थी। हिचक-हिचककर पूरी बात पिताजी को बता दी कि तीन दिन से रोज झाड़ू लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते।
पिताजी नें मेरे हाथ से झाड़ू छीनकर दूर फेंक दी। उनकी आंखों में आग की गर्मी उतर आई थी। हमेशा दूसरों के सामने तीर-कमान बने रहने वाले पिताजी की लंबी-लंबी घनी मूछें गुस्से में फड़फड़ाने लगी थीं। चीखने लगे, कौण–सा मास्टर है वो द्रोणाचार्य की औलाद, जो मरे लड़के से झाड़ू लगवावे है…..”
पिताजी की आवाज पूरे स्कूल में गूंज गई थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर के साथ सभी मास्टर बाहर आ गए थे। कलीराम हेडमास्टर ने गाली देकर मेरे पिताजी को धमकाया। लेकिन पिताजी पर धमकी का कोई असर नहीं हुआ। उस रोज जिस साहस औऱ हौसले से पिताजी ने हेडमासटर का सामना किया, मैं उसे कभी भूल नहीं पाया। कई तरह की कमजोरियां थीं, पिताजी में लेकिन मेरे भविष्य को जो मोड़ उस रोज उन्होंने दिया, उसका प्रभाव मेरी शख्सियत पर पड़ा।
हेडमास्टर ने तेज आवाज में कहा था, “ले जा इसे यहां से…..चूहड़ा होके पढ़ाने चला है…जा चला जा….नहीं तो हाड़-गोड़ तुड़वा दूंगा।“
पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा औऱ लेकर घर की तरफ चल दिए। जाते-जाते हेडमास्टर को सुनाकर बोले, “मास्टर हो…इसलिए जा रहा हूं ….पर इतना याद रखिए मास्टर…यो चूहड़े का यहीं पढ़ेगा…इसी मदरसे में। औऱ यो ही नहीं, इसके बाद औऱ भी आवेंगे पढ़ने कू।“


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