शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

हम तो विदेश वाले हैं बाबू.....



 
                    उनके दर पे ना जाना ऐ हवा
                 कि वो अभी-अभी अमेरिका से लौटे हैं

विदेश जाना भारत में एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है…चाहे लोग वहां नौकरी करने जाएं घूमने या फिर पढ़ने जाएं… भारतीयों की ललक विदेश में बसने और फ्यूचर बनाने की होती है, जबकि ज्यादातर विदेशी सिर्फ भारत घूमने की इच्छा रखते है। भारत के युवाओं के बारे में आशीष नंदी ने कहा -अब हर भारतीय युवा अपना भविष्य विदेश में ही देख रहा है। उनके अपने देश में उन्हे अपना फ्यूचर डार्क दिखता है । क्यों है विदेशों की तरफ इतना आकर्षण ? क्या खींच रही है भारतीयों को चमकदार चीजें या अच्छा खासा पैसा ? वजह जो भी हो लेकिन विदेश में कई वर्षों तक रहने के बाद लोगों को भारत में स्थायी रुप से रहना एकदम वैसा ही लगता है जैसे किसी ने कूल्लू मनाली से बोरिया-बिस्तर बांध कर रेगिस्तान भेज दिया हो । भारतीयों के लिए जीवन में एक बार विदेश घूम आना चार धाम यात्रा से कहीं बढ़कर होता है।
उषा प्रियंबदा के एक उपन्यास “रुकोगी नहीं राधिका” में नायिका अपने पिता के लाख मना करने के बावजूद एक अजनबी विदेशी के साथ पढ़ाई करने विदेश चली जाती है। कई वर्षों बाद हमेशा के लिए भारत लौटने पर एयरपोर्ट से ही दोबारा विदेश भाग जाना चाहती है, मामी के घर गुसलखाने में नहाते वक्त विदेशी साबुन मामी के साबुनदानी में रखती है तब उसे बड़ा दुख होता है, चारो तरफ  सब कुछ फीका-फीका सा दिखता है, नायिका का मन घबराता है, उसे भारत में जिंदगी बिताना कठिन लगता है।
 कवि सम्मेलन में कवि एक वक्तव्य सुनाते हुए कहता हैं - एक बार मैं अमेरिका गया औऱ वहां एक सज्जन से मिला। ये बातें मैं इसलिए बता रहा हूं कि मै अमेरिका भी गया हूं। विदेश जाने से पहले वीजा की प्रक्रिया पूरी करवाने भर में ही मनुष्य की ख्याति फैलने लगती है, सम्मान बढ़ने लगता है कि अब तो आप विदेश वाले हो गए।
मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास “कसप” में नायक नायिका से बेइंतहा प्यार करता है, लेकिन जब नायक को विदेश जाने का मौका मिलता है तो नायिका से कहता है मेरा फ्यूचर अमेरिका में है, मुझे जाने दो !! नायिका उसको सच्चे प्यार का हवाला देकर कहती है मुझे ही अपना अमेरिका समझो…मुझे छोड़ कर ना जाओ। अन्त में नायक उसे छोड़कर चला जाता है ।
कॅालोनी के एक भाई साहब अमेरिका में रहते हैं, एक महिने के लिए भारत आये रहे। जितने दिन  भारत में रहे उतने दिन उनके सिर में विदेशी दर्द सा कुछ होता रहा। हर वक्त मुंह से “डिस्गस्टिंग”  शब्द निकलता रहता। पड़ोसियों से अपनी टेंशन प्रकट करते हुए कहते, ‘हाऊ डिस्गस्टिंग यहां तो नया जूता भी हफ्ते भर में पुराना दिखने लगता है, उधर अपने न्यूयॅार्क में तो एक हफ्ते तक जूते को पॅालिश करने की भी जरुरत नहीं पड़ती। जाने कैसे रहते हैं यहां के लोग। भाई साहब को सिर्फ दो साल हुए थे न्यूयॅार्क रहते, लेकिन बातों में तेरा भारत मेरा न्यूयॅार्क जैसे शब्द शामिल हो गए थे।

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