शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

एक रूपए दे दो भईया...


तेज बुखार ने मुझे ऐसे चपेट मे लिया कि एक हफ्ते तक मैं बिस्तर से उठ ना सकी …जब बुखार उतरा और मैं कुछ अच्छा महसूस होने लगा तो मेरा घर से बाहर कहीं घूमने और कुछ खाने का मन हुआ…

मैनें बड़े भाई को फोन लगाया..और कहीं घूमने चलनें को बोला…पहले तो उन्होंने मुझे डांटा और मना कर दिया…लेकिन  काफी मनौती और मेरी बुखार वाली दास्तां सुनकर उन्होंने चलने के लिए हामी भर दी…

इलाहाबाद में रहते हुए मुझे एक साल हो गए थे लेकिन मै अभी तक नैनी ब्रिज नहीं देखी थी------इसलिए हम नैनी गए…नैनी का कैंटोंमेंट एरिया जवानों की चौकड़ी है…साफ सुथरी चौड़ी और ऊंची सड़कें.. दोनों तरफ घने पेड़ -पौधे…बगल में बहती गंगा नदी…उसको सलाम करता नैनी ब्रिज ..हनुमान जी का छोटा सा मंदिर और बड़ी सी भीड़…बंदर लंगूर..भांति-भांति के पक्षी…अद्भुत नजारा था…ऐसा लग रहा था कि मैं घर मे टंगी कोई सिनरी देख रही हू…जिसमें ये सारे नजारे मुझे एक साथ दिख रहे हैं….

नौजवान लड़के-लड़कियां एक दूसरे का हाथ पकड़े टहल रहे थे…..कुछ लोगों की भीड़ मंदिरों मे थी…घुमते-घूमते हमलोगों ने चिप्स का एक पैकेट खरीदा…और वहीं के एक पार्क में बैठकर खाने लगे…तभी 3-4 लड़के हमारे बगल से गुजरे..उनमें से एक ने मेरे पर छींटाकसी की…."मैडम मियां जी के साथ मजे ले रही हैं..और हम तन्हा घूम रहे हैं"….
कसम से इतना सुनते ही दिमाग भन्ना गया….लेकिन भईया ने मुझे कुछ बोलने नहीं दिया….वे जैसे ही उठे उन लड़कों ने तेज की दौड़ लगाई और भाग गए….मैने आस-पास देखा कि कई लड़कियां लड़कों के कंधे पर सिर टेके बैठी थी…तब मुझे लड़कों के छींटाकसी की वजह समझ मे आयी….
शाम हो चली थी और हम हनुमान मंदिर से गुजरते हुए आगे बढ़ रहे थे…तभी दो छोटी-छोटी लड़कियों ने हमे घेर लिया….हाथ मे कटोरी पकड़े और सिर खुजलाते हुए रटी जा रही थी…दीदी एक रूपया दे दो…भईया दे दो…बिस्कुट ही दे दो….हमारे पास उस वक्त बिस्कुट तो था नहीं लेकिन उनको ना जानें कहां दिखा…

.मैनें पर्स खोला लेकिन मेरे पास फुटकर पैसे नहीं थे…भईया के पास भी खुल्ले नहीं थे….इन लड़कियों ने हमें जकड़ लिया…और मेरे पैर पर मत्था टेककर रिरियाने लगी….."एक रुपया दे दो ….तोहर जोड़ी बनी रही…घर में सुन्दर ललना आयी…..ललना झुनझुना खेली….खूब पढ़ी और बड़ा होई"…ब्ला ब्ला ब्ला….  उस वक्त भईया के सामने उनकी ऐसी बातें सुनकर मैं बहुत जोर से हंसी…क्यों कि उन लड़कों की छींटाकसी से हमारा पाला पड़ चुका था…और ये तो बच्चियां हैं जो सीखाए और रटे-रटाये शब्दों के बाण से हमें छेद रही हैं…एक रुपए की खातिर… 

अपनी बातों पर मुझे  हंसते हुए देखकर उनमें से एक ने कहा…जाने दो दीदी तुम्हारे पास फुटकर पैसे नहीं हैं तो…लेकिन हमारी एक फोटो ले लो….अम्मा जाती हैं…एक बड्डे से साहब के घर बर्तन माजने…उन्होंने अपनी लड़की का फ्राक मेरे लिए दिया है..आज वही पहिने हूं….तो हमार फोटो ले लो…..

उनकी बातें सुनकर ना जाने मुझे किस तरह का दुख हो रहा था…उसे कोई शब्द देकर मैं नहीं बयां कर सकती….मैं उन्हें दस रुपए दी और वहां से चल दी….लेकिन दिमाग मे उन बच्चियों की खनकती हुई आवाज शोर मचा रही थी….एक रुपया दे दो दीदी…एक रुपया दे दो भैया…


2 टिप्‍पणियां:

हरीश सिंह ने कहा…

अच्छी प्रस्तुति, मुझे नहीं पता था आपकी तबियत ख़राब थी, भगवान आपको स्वस्थ रखे.

अनूप शुक्ल ने कहा…

सहज करुणा तुम्हारे व्यक्तित्व का मूल भाव है। अच्छी पोस्ट!